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________________ कन्या कुमारिका नार्यो गशिभेदोपधाभिदोः ( विश्वलावन) । इमाम मालूम होता है कि कन्या कुमारी को भी कहते है और स्त्रोमात्र का भी कहते है। इसलिये विधवा को भी कन्या कह सकते हैं। यह न समझिये कि यह अर्थ सिर्फ कोप में लिखने के लिये ही है, शास्त्रका ने इसका प्रयोग भी किया है। इसका उदाहरण भी लीजिये मुग्रोव की स्त्री मुताग, दो बच्ची को माना हो गई थी । फिर भी माहम्मगति विद्याधर उसके ऊपर आसक्त था। वह सोचता है कि वह कन्या ( सुतारा ) मुझे कब मिले गी-'फनोपायनतां कन्यां लम्प निवृ निदायिनी' । जब दो बच्चों की माता को कन्या कहा आ सकता है नव विधवा को कन्या क्या नहीं कहा जा सकता? ऐसे व्यापक अर्थ में कन्या शब्द का प्रयोग पार भी मिलता है: जे-'देवकन्या' आदि। विवाह क लन्नगा के फर में पड कर जा लाग विधवाविवाह का निषेध करते हैं, उनमें हम कह देना चाहते है कि वास्तविक विवाह का लनण 'म यचारित्रमाहोदया किवहनं विवाहः' है जिसमें कन्या और विधवा का कोई प्रश्न ही नहीं है । कन्याशब्द का प्रयाग एक मात्रय के ग्विाज के अनुसार है। दूसरी बात यह है कि शब्द का अर्थ बहुत ज्यापक है। कई लोग कहने लगते हैं कि "कन्या तो दने की चीज है। जिसको वह दी जानी है, वह उसी की सम्पनि हो जाती है: फिर किमीमर को लन का क्या अधिकार है। इसके उत्तर में हम पहिले यही निवेदन करेंगे कि स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं है । जैन धर्म कहता है कि महावन न पाल सकने के कारण जैसे पुरुष एक स्त्री को ग्रहण करके अणु
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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