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________________ ( ४ ) हैं। स्वार्थत्याग तो ज़्यादा है हो, क्योंकि स्त्रियाँ सेवाधर्म का पालन ज़्यादह करती हैं। सन्तानोत्पत्ति में स्त्रियों को जितना कप सहना पड़ता है, उसका शतांश भी पुरुषों को नहीं सहना पडता। विवाह होते ही स्त्री अपने पितृगृह का त्याग कर दंती है । मतलब यह कि हे विवाह के विषय में विचार कीजिये, चाहं विवाह के फल के बारे में विचार कीजिये. स्त्रियों का स्वार्थत्याग पुरुषों के स्वार्थत्याग से कई गुणा ज्यादह है। स्त्रिया में परुषां से विषमता ज़रूर है, परन्तु वह विषमता उन बातों में कोई त्रुटि उपस्थित नहीं करती, जो कि पुनर्विवाह के अधिकार के लिये आवश्यक है। बल्कि वह विषमता अधिकार बढ़ाने वाली ही है। क्योकि पुरुष विधुर हो जान पर नो किसी तरह गार्हस्थ्यजीवन गौरव के साथ बिता सकता है, साथ ही आर्थिक स्वानन्य और सुविधा भी रख सकता हे; परन्तु विधवा का तो सामाजिक स्थान गिर जाता है और उसका आर्थिक कष्ट बढ़ जाता है। इसलिय विधुरविवाह की अपेक्षा विधवाविवाह की ज्यादः श्रावश्यक्ता है। और स्वार्थन्याग में स्त्रियाँ ज्यादा हैं ही, इसलिये विधुरों को विवाह का अधिकार भले ही न हो, परन्तु विधवाओं को तो अवश्य होना चाहिये। आक्षेप (ड)-स्त्री पर्याय निंद्य है। इसलिये उपपयांय ( पुरुषपर्याय ) प्राप्त करने के लिये त्याग करना चाहिये।। विद्यानन्द) समाधान-खीपर्याय निंध है, अथवा अत्याचारी पुरुष समाज ने सहस्राब्दियों के अत्याचारों से उसे निंद्य बनाडाला है, इसकी मीमांसा हम विचारशील पाठकों पर छोड़ देते हैं। अगर माक्षेपक की बात मानली जाय तो पुरुषों की अपेक्षा त्रियों को पुनर्विवाह की सुविधा यादः मिलना चाहिये, क्यों.
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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