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________________ (cy) कि पुरुषों को अपनी उच्चता के लिहाज़ से ज़्यादा त्याग करना चाहिये । मुनिपद श्रेष्ठ है और श्रावकपद नीचा | अब कोई कहे कि मुनि उच्च हैं, इसलिये उन्हें रण्डीबाज़ी करने का भी अधिकार हैं ! गृहस्थ को तो मुनिपद प्राप्त करना है, इसलिये उसे ग्राडीबाज़ी न करना चाहिये ? क्या उच्चता के नाम पर मुनियों को ऐसे अधिकार देना उचित है ? यदि नहीं, तो पुरुषों को भी उच्चता के नाम पर पुनर्विवाह का अधिकार न रखना चाहिये | अथवा स्त्रियों का अधिकार न छीनना चाहिये । इसी युक्ति के बल पर हम यह भी कह सकते हैं कि स्त्रियाँ अधिक निर्बल और निःसहाय हैं; इसलिये स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादः सुविधा देना चाहिये । आक्षेप (ढ) - विषय-भोगों की स्वच्छन्दता हर एक को देदी जाय तो वैराग्यका कारण बहुत ही कम मिला करे । छोटो अवस्था की विधवा का दर्शन होना कर्मवैचित्र्य का सूचक है, इससे उदासीनता श्राती है । (विद्यानन्द ) समाधान - पुरुष तो एक साथ या क्रम से हज़ारों स्त्रियाँ रक्खे, फिर भी वैराग्य के कारणों में कमी न हो और स्त्री के पुनर्विवाह मात्र से वैराग्य के कारण बहुत कम रह जायँयह तो विचित्र बात है ! क्या संसार में दुःखों की कमी है जो वैराग्य उत्पन्न करने के लिये नये दुःख बनाये जाते हैं ? क्या अनेक तरह की बीमारियाँ देखकर वैराग्य नहीं हो सकता ? फिर चिकित्सा का प्रबन्ध क्यों किया जाना है ? यदि श्राज जैनियों के वैराग्य के लिये संसार को दुःखी बनाने की ज़रूरत है तो जैनधर्ममें और आसुरीलीलामें क्या अंतर रह जायगा ? यह तो ध्यान की प्रकर्षता है। जिनको वैराग्य पैदा करना है उन्हें, संसार वैराग्य के कारणों से भरा पड़ा है। मेघाँ और बिजलियों की क्षणभंगुरता, दिन रात मृत्यु का दौरा, अनेक
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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