SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेक सन्तान उत्पन्न कर सकता है परन्तु एक स्त्री, अनेक परुषो को भी रखकर एक सन्तान से अधिक पैदा नहीं कर सकती। (श्रीलाल) समाधान-यदि ऐसा है तो स्त्रियों का पुनर्विवाह तुरंत चालू कर देना चाहिये, भले ही पुरुपों का पुनर्विवाह रोक दिया जाय । क्योंकि अनेक सन्तान पैदा करने के लिये तो एक पुरुष ही काफी है। इसलिये बहुत पुरुष कुमार या विधुर रहें तो सन्तान संख्या की दृष्टि से कोई हानि नहीं है, किन्त स्त्री तो एक भी कुमारी या विधवा न रह जाना चाहिये: क्योंकि उनके वैधव्य या कौमार्य से संख्या घट जायगी। यह कहाँ का न्याय है कि जिसकी हमें अधिक ज़रूरत है वह नो व्यर्थ पड़ी रहे और जिसकी थोड़ी ज़रूरत है उसकी ज़्यादः कदर की जाय । प्रकृति ने जो स्त्री पुरुष के बीच में अन्तर उत्पन्न कर दिया है, उससे मालूम होता है कि विधुरविवाह की अपेक्षा विधवाविवाह कई गुणा श्रावश्यक है। आक्षेप ( च )-सब विषय समान नहीं हुआ करते। एक ही सम्मोग क्रिया से स्त्री को गर्भधारण आदि अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं और पुरुष को कछ नहीं। अव कहाँ गये ममान बनाने वाले न्यायनीर्थ जी ? ( श्रीलाल ) समाधान-स्त्री पुरुषों में शारीरिक समानता नहीं है इसलिये उनके अधिकागे में भी विषमता होना चाहिये और उस विषमता में पुरुषों को अधिक अधिकार मिलना चाहिये यह नहीं कहा जासकता। अगर कोई कहे कि स्त्री परुष में शारीरिक विषमता है, इसलिये पुरुष के मरने पर स्त्री को भोजन करने का भी अधिकार नहीं है ( उसे भूखो रह कर मर जाना ही उचित है), तो क्या यह उचित है ? प्रकृतिविरुद्ध विषमता पैदा करने का हमें क्या अधिकार है ? हाँ, अगर
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy