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________________ (५६) दोनों मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुए (इस घटना से नरक के ठेकेदार पंडितोको वड़ा कष्ट होता होगा।)। इस पर श्रादी. पक का कहना है कि वह स्वर्ग गई सो श्रेष्ठ-मार्ग के प्रवलंबन से गई', परन्तु इससे इतना तो मालूम होगया कि परस्त्रीसंवी को श्रेष्ठमार्ग अवलम्बन करने का अधिकार है-व्यभिचारिणी स्त्री भी सार्यिका के व्रत ले सकती है। उसका यह कार्य धर्म: विरुद्ध नहीं है । अन्यथा उसे अच्युत-स्वर्ग में देवत्व कैसे प्राप्त होता? हमाग यह कहना नहीं है कि विवाह करने से ही कोई स्वर्ग जाता है । स्वर्ग के लिये तो तदनुरूप श्रेष्ठ मार्ग धारण करना पड़ेगा । हमारा कहना तो यही है कि विधवाविवाह कर लेने से श्रेष्ठ मार्ग धारण करने का अधिकार या योग्यता नहीं छिन जाती । आक्षेपकों का कहना तो यह है कि पुनर्विवाह वाला सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, परन्तु मधु के दृष्टान्त से तो यह सिद्ध होगया कि पुनर्विवाह वाला तो क्या, परस्त्रीसेवी भी सम्यक्त्वी ही नहीं, मुनि तक बन सकता है। प्रश्न तीसरा “विधवाविवाह से निर्यश्च और नरकगतिका बंध होता है या नहीं" इस नीसरे प्रश्न के उत्तर में हमने जो कुछ कहा था उस पर श्राक्षेपकों ने कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिसका उत्तर दिया जाय ? श्राक्षेपकों ने बार बार यही दुहाई दी है कि विधवाविवाह धर्म विरुद्ध है, व्यभिचार है, इसलिये उस से विसंवाद कुटिलता है, उससे नरक तिर्यञ्चगति का बन्ध है । लेकिन इस कथनमें अन्योन्याश्रय दोष है। क्योंकि जब विधवा. विवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो तब उससे विसंवादादि सिद्ध हो ।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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