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से खुश करके रमण किया जिससे उसका यौवन मदन और विभव सफल हो गया । चन्द्राभा का देखना, किलोले करना, हंसना, चूमा लेना, काम क्रीड़ा करना आदि से उनका सुरतो. त्सव अंग जमने लगा। गाना, नाचना, हँसी दिल्लगी करना, वापिका के जल में और बनों में बिहार करना प्रादि से वे सुख के समुद्र में मग्न हो गये। उन्हें जाता हुप्रा समय मालूम भी न पड़ा।
पाठक देखें कि क्या वह बलात्कार था ? खैर, मधु की बात आई है तो एक बात और सुनिये। मधु था तो परस्त्री संघक और उसका यह पाप विख्यात भी हो गया था । फिर भी उसके यहाँ एक दिन विमलवाहन मुनिगज आहार लेन के लिये भाये-स्मरण रहे कि इस समयभी मधु चन्द्रामा के माथ रहता था तो उसने मुनि को दान दिया। प्रामुकं नृपतिना विधिपूर्व संयनाय वरदानमदायि । नेन चान्तफलतः सहसैव चित्रपश्चक मवापि दुगपम् ॥७॥६५॥
गजा मधु ने मुनिगज के लिये आहार दान दिया, जिससे तुरन्त ही पंच श्राश्चर्य हुए । पाठक देखें कि एक पर. म्त्रीसेवी, मुनि को आहार देता है जिसको प्राचार्य महाराज वरदान (उत्कृष्टदान) कहते हैं और उससे तुरन्त पंच-आश्चर्य भी होते है । इससे न तो मुनि को पाप लगता है न मधु को। पञ्च पाश्चर्य इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, बल्कि उस परम्त्रीसवी का अन्न खाने के बाद ही विमलवाहन मुनिको केवल जान पैदा हुआ। अगर आजकलके ढोंगी मुनियों के साथ ऐसी. घटना हो जाये तो वे दुरभिमान के पुतले शुद्धि के नाम पर अनाड़ियाँ तक निकाल निकाल कर धोने की चेष्टा करेंगे और बेगरे दानाको नो नरक निगांद के सिवाय दूसरी जगह भेजेंगे ही नहीं । स्वैर, अब भागे देखिये । राजा मधु और चन्द्रामा