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230 / जैन धर्म और दर्शन
हिसा का दोष लगता है। भले ही बल्ब आदि के प्रकाश में आप अपने भोजन को देखते हैं कितु उसमें पड़ने वाले जीवों की नहीं बचा सकते। कुछ कीट-पतंग तो उनके प्रकाश में ही आते हैं, और भोज्य सामग्री पर गिरते रहते हैं। अतः रात्रि में भोजन करने से त्रस हिंसा से बचा नहीं जा सकता। दिन में सूर्य प्रकाश होने के कारण उनका सद्भाव नहीं पाया जाता। इसका कारण सूर्य प्रकाश में पायी जाने वाली अल्ट्रावायलेट (Ultravoilet) और इन्फ्रारेड (Infrared) नाम की अदृश्य किरणें हैं। सूर्य के प्रकाश में उक्त दोनों नाम वाली.अदृश्य
और गर्म किरणे निकलती रहती हैं। उसके प्रभाव से सूक्ष्म जीव दिन में यहां कहीं छिप जाते हैं तथा नये जीवों की उत्पत्ति नहीं होती । रात्रि होते ही वे निकलने लगते हैं। सूर्य प्रकाश के अतिरिक्त प्रकाश के किसी अन्य स्रोत में उक्त किरणें नहीं पायी जातीं। इसलिए रात्रि होते ही ये निकलने लगते है । यही कारण है कि बरसात के दिनों में भी दिन में बल्ब जलाने पर कीडे नहीं आते। अतः त्रस हिंसा से बचने के लिए रात्रि-भोजन का त्याग अनिवार्य है।
रात्रि भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकर है। चिकित्सा शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने के तीन घंटे पूर्व तक भोजन कर लेना चाहिए। जो लोग रात्रि भोजन करते हैं वे भोजन के तुरंत बाद सो जाते हैं जिससे अनेक रोगों का जन्म होता है । दूसरी बात यह कि सूर्य प्रकाश में केवल प्रकाश ही नहीं होता, अपितु जीवनदायिनी शक्ति भी होती है। सूर्य प्रकाश से हमारे पाचन तंत्र का गहरा संबंध है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश पाकर कमलदल खिल जाते हैं तथा उसके अस्त होते ही सिकुड़ जाते हैं, उसी प्रकार जब तक सूर्य प्रकाश रहता है तब तक उसमें रहने वाले पूर्वोक्त गर्म किरणों के प्रभाव से हमारा पाचन तंत्र ठीक काम करता है। उसके अस्त होते ही उसकी गतिविधि मंद पड़ जाती है, जिससे अनेक रोगों की संभावना बढ़ जाती है अतः रात्रि में भोजन का त्याग करना ही चाहिए। पाक्षिक श्रावक यदि रात्रि भोजन का पूर्णतः त्याग नहीं कर पाता तो कम से कम पान, दवा, जल, दूध आदि की छूट रखकर अन्य स्थूल आहार का त्याग तो करना ही चाहिए।'
इसी तरह पाक्षिक श्रावक को पंचपरमेष्ठि की पूजा/स्तुति एवं प्राणियों पर जीव दया का भाव भी रखना चाहिए।
नैष्ठिक श्रावक व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक कहलाते हैं। 'नैष्ठिक' शब्द निष्ठा से निष्पन्न है। व्रतों का पूरी निष्ठा से पालन करने वाला श्रावक नैष्ठिक है। पाक्षिक श्रावक अपने व्रतों को कुलाचार के रूप में पालन करता है, उसमें कदाचित् अतिचार भी लग सकते हैं, किंतु नैष्ठिक श्रावक निरतिचार रूप से व्रतों का पालन करते हैं।'
नैष्ठिक श्रावक की ग्यारह श्रेणियां बताई गई हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएं कहते हैं।
1. (अ) सा. घ2/16
(ब) ला. स. 2/92 2. जे. सि को, 3/46 3 दुर्लेश्यामि-भवाजातु विषये क्वचिदुत्सुकः ।
स्खलन्नपि क्वापि गुणे पाक्षिकः स्यान्नः नैष्ठिकः ।। सा. घ. 3/4