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श्रावकाचार / 229
तक उपयोग करना चाहिए। इसके बाद उसमें त्रस जीवों की पुनरुत्पत्ति की संभावना रहने से उनकी हिंसा का डर रहता है।
रात्रि भोजन त्याग रात्रि भोजन का भी प्रत्येक गृहस्थ को त्याग करना चाहिए। रात्रि में भोजन करने से त्रस
1 मुहूर्त गालित तोय प्रासुक प्रहर द्वयम।
उष्णोदक महोरात्र तत. समुर्छिन भवेत् ॥ वत विधान मग्रह पृ 31 2 जेनेतर ग्रथो मे भी जल छानकर पीने का प्रावधान किया गया है । लिग पुराण में तो यहाँ तक कहा गया है
कि एक मछली मारने वाला वर्ष भर मे जितना पाप अर्जित नही करता उतना पाप बिना छने जल का उपयोग करने वाला एक दिन में कर लेता है।
सवत्सरेण यत्पाप कुरुते मत्स्यवेधक ।
एकाहेन तदाप्नोति अपूत जल सगृही ।। (लिग पुराण 202) उत्तर मीमासा मे तो जल छानने की विधि भी जैन परपरा के अनुरूप बतायी है, त्रिंशद्गुल प्रमाण विशन्यगुलमायत । तद्वस्व दिगुणी कृत्य गालयेच्चोदक पिबेत्
तस्मिन् वस्खे स्थिता जीवा स्थापयेज्जलमध्यत ।
एव कृत्वा पिवेत्तोय स याति परमार्गानम् ।। (उत्तर मीमासा 203) अर्थात् तीस अगुल लबे और बीस अगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके उससे छानकर जाल पिए तथा उस वस्त्र मे जो जीव है उनको उसी जलाशय मे (जहा से वह जल आया है, वही पर स्थापित कर देना चाहिए । इस प्रकार से जो मनुष्य जल पीता है वह उत्तम गति को प्राप्त करता है।
सयम प्रकाश उत्तरार्द्ध 1/102 पर उद्भुत रात्रि भोजन त्याग के महत्त्व को अन्य धर्मों और मप्रदायो मे भी बताया गया है । महाभारत में नरक के चार दारों मे रात्रि भोजन का प्रथम द्वार बताते हुए र्धािप्टर मे रात्रि में जल भी न पीने की बात कहते हुए कहा गया है
नरकद्वारणि चत्वारि प्रथम रात्रि भोजन । परस्त्री गमन चैव मन्धानानन्त कायिके ।। ये रात्री सर्वदाहार वर्जयन्ति सुमेघस । तेषा पक्षोपवासस्य फल मामेन जायते ।। नोदकमपि पातब्य रात्रावत्र युधिष्टिर।
तपस्विना विशेषेण गृहिणाच विवेकिना (महाभारन) अर्थात् रात्रि भोजन करना, परस्त्री गमन करना, अचार, मुरब्बा आदि के सेवन करना तथा कदमूल आदि अनतकाय पदार्थ खाना ये चार नरक के द्वार है। उनमे पहला रात्रि भोजन करना है। जो रात्रि में मब प्रकार के आहार का त्याग कर देते है उन्हे एक माह में एक पक्ष के उपवास का फल मिलता है। हे युधिष्ठिर ! रात्रि मे तो जल भी नही पीना चाहिए, विशेषकर तपस्वियों एव ज्ञान सपन्न गृहस्थों को तो रात्रि में जल भी नही पीना चाहिए। जो लोग मद्य और मास का सेवन करते हैं, रात्रि में भोजन करते है तथा कदमूल खाते है उनके द्वारा की गयी तीर्थयात्रा तथा जप और नप मब व्यर्थ है।
मद्यमासाशन रात्री भोजन कन्द भक्षणम्।
ये कुर्वन्ति वृथा तेषा तीर्थयात्रा जपस्तपः ।। (पद्मपुराण) गरुड़ पुराण में रात्रि में अन्न को मास तथा जल को खन की तरह कहा गया है
अस्तगते दिवानाचे आपो रुधिर मुच्यते ।
अन्न मास सम प्रोक्त मार्कण्डेय महर्षिणा । अर्थात् दिवानाथ यानी सूर्य के अस्त हो जाने पर मार्कण्डेय महर्षि ने जल को खन तथा अन्न को मास की तरह कहा है। अतः रात्रि का भोजन त्याग करना चाहिए।