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श्रावकाचार / 231
साधक अपनी शक्ति को न छिपाता हुआ निचली दशा से क्रमपूर्वक उठता चला जाता है, वे हैं दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त विरत. दिवा मैथुन, त्याग, पूर्णब्रह्मचर्य आरंभ त्याग,परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग तथा उद्दिष्ठ त्याग।
वैराग्य की प्रकर्षता के अनुसार इन्हें इस क्रम में रखा गया है कि धीरे-धीरे क्रमशः इन पर कोई भी आरूढ़ हो, जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। ये ग्यारह श्रेणियां उत्तरोत्तर विकास को लिए हैं। साधक पूर्व-पूर्व की भूमिकाओं से उत्तरोत्तर भूमिकाओं में प्रवेश करता जाता है। जैसे ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश करने वाले में दसवीं कक्षा की योग्यता होनी चाहिए, वैसे ही उत्तर-उत्तर की प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व के गुण समविष्ट रहते हैं।'
ग्यारह प्रतिमाएं आइये अब हम क्रमपूर्वक उनके स्वरूप पर विचार करें
1. दर्शन : पर्व कथित पाक्षिक श्रावक की समस्त क्रियाओं का पालन करने वाला श्रावक दार्शनिक कहलाता है। वह श्रावक के आठों मूल गणों को निरतिचार रूप से पालन करता हुआ आगे के व्रतों के पालन करने मे उत्सुक रहता है। अब वह संसार, शरीर और भोगों के प्रति विरक्त चित्त रहता हुआ पच परमेष्ठि के चरणों में पूर्णतः समर्पित रहता है।' भोगों के प्रति उदासीनता आ जाने के कारण वह अचार मुरब्बा आदि पदार्थ तथा जिसमें फुई/फफूंद लगी हो, जिन वस्तुओं का स्वाद बिगड गया हो ऐसी वस्तु भी नहीं खाता । वह मद्य,मांस,मधु आदि का सेवन तो करता ही नहीं, इस प्रकार के निद्य व्यवसाय का भी त्याग कर नीति और न्यायपूर्वक ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता है।
2. व्रत प्रतिमा : यह श्रावक की दूसरी श्रेणी है। इस श्रेणी वाले श्रावक पूर्वोक्त मूल गुणों के साथ पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करते है। इस प्रतिमा में पंचाणुव्रतों के माथ-साथ तीन गण व्रत और चार 'शिक्षा व्रत' पाले जाते हैं। इस प्रकार व्रती श्रावक 5 +3+4 कुल बारह व्रतों को निःशल्य होकर निरतिचार पालन करता है।'
गण व्रत-जिससे अणुव्रतों में विकाम होता है उन्हें गुण व्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन हे-दिगवत,देशव्रत तथा अनर्थ दंड त्याग।
दिग्वत : जीवन पर्यन्त के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा बना लेना दिव्रत है लोभ के शमन के लिए दिगव्रत लिया जाता है, क्योंकि इससे मर्यादीकृत क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में कितना भी बड़ा प्रलोभन हो, वह बाहर जाने का भाव नहीं रखता। तथा अपने सीमित साधनों में ही संतुष्ट रहता है। तृष्णा की कमी हो जाने से यह व्यक्तिगत निराकुलता का साधन तो है ही, विदेशी उद्योग का नियमन हो जाने से देश की संपत्ति और प्रतिभा भी विदेश जाने से बच जाती है।
देशवत : दिग्व्रत में ली गयी जीवन भर की मर्यादा के भीतर भी अपनी
1. का अनु 305-
62 र कश्रा 136 3 र क श्रा 1374 का अनु 3285र का श्री 138 6 (आर का.ब्रा67 (ब) कई आचार्य देश वत को शिक्षा वत में लेकर भोगोपभोग वत को गण वत कहते
है। देखें महा पु. 10/165 7. रक. श्रा688 का अनु 341-42