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140 / जैन धर्म और दर्शन
(9) निधत्ति कर्म की वह अवस्था 'निधत्ति' कहलाती है, जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है । इस अवस्था में अपकर्षण-उत्कर्षण की संभावना बनी रहती है।'
___(10) निकाचित कर्म की उस अवस्था का नाम 'निकाचित' है, जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा-ये चारों अवस्थाएं असंभव होती हैं। कर्मों की इस अवस्था को 'नियति' कहा जा सकता है; क्योंकि इस अवस्था में कर्म का फल उसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है, जिस रूप में बंध को प्राप्त हुआ था। इस अवस्था में इच्छा स्वातंत्र्य या पुरुषार्थ का सर्वथा अभाव रहता है। किसी विशेष परिस्थिति में ही कर्मों की यह अवस्था होती है।
कर्मों के इन दस करणों से स्पष्ट है कि जैन कर्म सिद्धांत नियतिवादी नहीं है और सर्वथा स्वच्छंदतावादी भी नहीं है। जीव के प्रत्येक कर्म के द्वारा किसी न किसी प्रकार की ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जो अपना कुछ-न-कुछ प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती और साथ ही जीव का स्वातंत्र्य भी कभी इस प्रकार अवरुद्ध व कुंठित नहीं होता कि वह अपने कर्मों की दशाओं में किसी भी प्रकार का सुधार करने में सर्वथा असमर्थ हो जाए। इस प्रकार जैन सिद्धांत में मनुष्यों के अपने कर्मों के फल भोग तथा पुरुषार्थ द्वारा उसको बदल डालने की शक्ति इन दोनों में भली-भांति समन्वय स्थापित किया गया है।
कर्मों की स्थिति जैन कर्म सिद्धांतानुसार प्रत्येक कर्म जीवात्मा के साथ एक निश्चित अवधि तक बंधा रहता है। तदुपरांत वह पेड़ में पके फल की तरह अपना फल देकर जीव से अलग हो जाता है। जब तक कर्म अपना फल देने की सामर्थ्य रखते हैं, तब तक की काल मर्यादा ही उनकी 'स्थिति' कहलाती है। जैन कर्म ग्रंथों में विभिन्न कर्मों की पृथक-पृथक स्थितियां (उदय में आने योग्य काल बताई गयी हैं । वे निम्न प्रकार हैंक्रमांक कर्म का नाम अधिकतम समय
न्यूनतम समय ज्ञानावरणी तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम अंतर्मुहूर्त दर्शनावरणी तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम अंतर्मुहूर्त वेदनीय
तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम बारह मुहूर्त मोहनीय
सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम अंतर्मुहूर्त आयु तैंतीस सागरोपम
अंतर्मुहूर्त नाम
बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम आठ मुहूर्त
1. गो. कर्मकाडगा450 2. -बही3. कम्मसरूवेण परिणदाण कम्मइय पोग्गलक्खधाण कम्मभावमद्दहिय अच्छाण कालो दिदीणाम।
-जय धवल 3/192