________________
कर्मों की विविध अवस्थाएं / 141
गोत्र
बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम आठ मुहूर्त अंतराय
तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम अंतर्मुहूर्त सागरोपम आदि उपमा काल हैं। इनके स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए जैन कर्मग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए। जिससे काल-विषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा।
अनुभाग कर्मों के फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं। प्रत्येक कर्मों का फलदान एक-सा नहीं रहता। जीव के शुभाशुभ भावों के अनुसार बंधने वाले प्रत्येक कर्मों का अनुभाग, अपने-अपने नाम के अनुरूप तरतमता लिये रहता है । कुछ कर्मों का अनुभाग अत्यंत तीव्र होता है। कुछ का मंद तो कुछ का मध्यम । कर्मों का अनुभाग कषायों की तीव्रता व मंदता पर निर्भर रहता है। कषायों की तीव्रता होने पर अशुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है, शुभ कर्मों का मंद तथा कषायों की मंदता होने पर शुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है तथा अशुभ कर्मों का मंद । तात्पर्य यह है कि जो प्राणी जितना अधिक कषायों की तीव्रता से युक्त होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही सबल होंगे, तथा शुभ कर्म उतने ही निर्बल होंगे। जो प्राणी जितना अधिक कषाय मुक्त होगा उसके शुभ कर्म उतने ही प्रबल होंगे एवं पाप कर्म उतने ही दुर्बल होंगे।
कर्मों के प्रदेश जीव के मन, वचन और काय रूप योगों के निमित्त से जीवों के साथ बंधने वाले कर्म परमाण 'कर्मों के प्रदेश' कहलाते हैं। जीव के भावों का आश्रय पाकर, एक साथ बंधने वाले सभी कर्मों के प्रदेश समान नहीं होते। उसका भी एक निश्चित नियम है। समस्त कर्म प्रदेश अपने एक निश्चित अनुपात से विविध कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं । उक्त क्रमानुसार आयु कर्म को सबसे कम भाग (हिस्सा) मिलता है। नाम कर्म के प्रदेश उससे कुछ अधिक होते हैं। गोत्र कर्म की मात्रा नाम-कर्म के बराबर ही है। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय इन तीन कर्मों को कछ अधिक प्रदेश मिलते हैं। तीनों का योग परस्पर समान होता है। इससे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म को जाता है तथा सबसे अधिक कर्म प्रदेश वेदनीय कर्म को मिलता है। यह मूल कर्मों का विभाजन है । इन प्रदेशों का पुनः उत्तर प्रकृतियों में विभाजन होता है । प्रत्येक कर्मों के प्रदेशों में न्यूनता व अधिकता का यही आधार है।
1. को अणुभागो कम्माणं सगकज्जकरणसत्ती अणुभागो णाम। -ज. प. 5/l 2. आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहिओ।
घादितियेवितत्तो मोहेतत्तो तदो तदिए । -गो. कर्म. का. 192