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(6) उदीरणा नियत समय के पूर्व कर्मों का उदय में आना 'उदीरणा' कहलाता है। जैसे, आमादि फल प्रयत्न - विशेष से समय से पूर्व ही पका लिये जाते हैं। वैसे हो, विशेष साधन के बल पर, कर्मों के अपकर्षण द्वारा, स्थिति कम करके नियत समय से पूर्व ही भोगकर क्षय किया जा सकता है । 2 सामान्यतः यह नियम है कि जिस कर्म का उदय होता है, उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है । 3
कर्मों की विविध अवस्थाएं / 139
(7) संक्रमण
'संक्रमण' का अर्थ होता है - 'परिवर्तन' ।' एक कर्म की स्थिति आदि का दूसरे सजातीय कर्म में परिवर्तन हो जाने को 'संक्रमण' कहते हैं । यह सक्रमण किसी भी एक मूल प्रकृति की उत्तर-प्रकृतियों में ही होता है। मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता, अर्थात् ज्ञानावरण बदलकर दर्शनावरण नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य कर्म भी अपने मूल रूप से परिवर्तित नहीं होते । कर्मों का अपने सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है, विजातीय में नहीं । इस नियम के अपवाद में आचार्यों ने बताया है कि चारों आयु तथा दर्शन मोहनीय और चरित्र - मोहनीय परस्पर संक्रमण को प्राप्त नहीं होते । प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के भेद से यह संक्रमण चार प्रकार का होता है ।
(8) उपशम
कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी, उदय में आने से रोक देना, 'उपशम' कहलाता है। कर्मों की इस अवस्था में उदय और उदीरणा संभव नहीं होती। इस अवस्था में अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण की संभावना रहती है। जिस प्रकार राख में ढकी अग्नि आवृत दशा में अपना विशेष कार्य नहीं कर सकती, किंतु आवरण के हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपने कार्य करने में समर्थ हो जाती है, उसी प्रकार उपशमावस्था को प्राप्त, कर्म-पुद्गल भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता । इस अवस्था के समाप्त होते ही वह अपना कार्य प्रारंभ कर देता है अर्थात् उदय में आकर अपना फल प्रदान करने लगता है।
1 भुजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचण फल ।
2 जय धवल 10/2
3 उदयस्स उदीरणस्सय सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो ।
4 अवत्यादो अवत्थतर सकति सकमोति ।
5 पर प्रकृति रूप परिणमन सक्रमण ।
6. णात्थि मूल पयडीण
7. दसण चरित्र मोहे आउचउक्के ण सक्रमण 8. जैन सि. को 1/464
- पं. सं. प्रा. 3/3
- पं. सं. प्रा 44 -जय धवल 19/3 -गो कर्मकाड जी. प्र. गा. 438
-गो कर्मकाड गा. 410 - गो. कर्मकांड गा. 410