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138 / जैन धर्म और दर्शन
(3) उदय कों के फल देने को 'उदय' कहते हैं। उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल अपनी-अपनी प्रकति के अनसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्म-पदगल का नाश या क्षय 'निर्जरा' कहलाता है।
कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि की अपेक्षा से ही होता है। उदय क्रम से परिपाक काल को प्राप्त होने वाला 'सविपाक' उदय कहलाता है। विपाक-काल से पहले ही तपादि विशिष्ट क्रियाओं द्वारा कर्मों को फलोन्मुख दशा में ले आना ‘अविपाक'-उदय कहलाता है।
स्वमुखोदय और परमुखोदय की अपेक्षा, इसके दो भेद किए गए हैं, कर्म कभी-कभी अपने ही रूप में फल देते हैं तथा कभी-कभी अन्य प्रकति रूप भी फल देते हैं। जो प्रकृति अपने ही रूप में उदय में आती है, उसे 'स्वमुखोदय' तथा अन्य प्रकृति रूप से उदय में आने को 'परमुखोदय' कहते हैं। जैसे क्रोध का क्रोध रूप से उदय में आना स्वमुखोदय है, तथा उसका मानादिक में परिणत हो जाना 'परमुखोदय' है।
(4) उत्कर्षण कर्मों की स्थिति व अनुभाग के बढ़ने को 'उत्कर्षण' कहते हैं।'
(5) अपकर्षण कर्म की स्थिति व अनुभाग के घटने को 'अपकर्षण' कहते हैं।'
कर्म-बंधन के बाद बधे-कर्मों में ये दोनों ही क्रियाए होती हैं। अशुभ कर्मों का बंध करने वाला जीव, यदि शुभ भाव करता है तो पूर्व-बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग अर्थात फलदान शक्ति. उसके प्रभाव से कम हो जाती है. और यदि अशभ कर्म का बंध करने के बाद और भी अधिक कलुषित हो जाता है, तो बुरे भावों के प्रभाव से, उनकी स्थिति तथा अनुभाग में भी वृद्धि हो जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षण के कारण, कोई कर्म शीघ्र फल देते हैं तथा कुछ कर्म विलंब से। किसी कर्म का फल तीव्र होता है तथा किसी का मंद। उत्कर्षण और अपकर्षण की विचारधारा यह सिद्ध करती है कि कर्म का फल सर्वथा नियत नहीं है। जीव के शुभाशुभ परिणामनुसार उसमें परिवर्तन संभव
1 उदयो विपाका सवो सि. 6/14 2 ततश्चनिर्जरात सू8/22 3 सर्वा सि 8/23 4 वही 8/21 5 जे सि को 1/366 6 स्थिति अनुभगयो वृद्धि उत्कर्षगम् गो णी गा 7 स्थिति अनुभागयो हानि अपकर्षणम्