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( ६७ ) रहे हैं : फिर भी हमारा यह कथन अनर्गल प्रलाप नहीं है कि शक्ति के द्व ेत स्वरूप की यह धारणा आज के विज्ञान की नयी शोध नहीं है । भारतीय संस्कृति की इस जैन शाखा ने सहस्रों वर्ष पूर्व इस द्वैतभाव को स्थिर कर लिया था ।
वास्तव में धर्म अधर्म तो दो आधारभूत शक्तियां हैं और Nagative positive charges अणु के विशेष कार्य सम्पादनत्व मात्र की कथा कहते है । विज्ञान के समक्ष जब गति की तरह स्थिति का प्रश्न भी मूल शक्ति के स्वरूप में आयगा : तो इस विषय के जैन विवेचन से उसको बहुत बड़ी सहायता मिलेगी ।
पड़ द्रव्यों की इस तरह स्थापना कर महावीर आगे बढ़े एवं उन्होंने इन सब द्रव्यों के प्राण स्वरूप जीव के उन्नति अवनति या विकाश ह्रास या बन्धन मुक्ति के नाम पर जा अमूल्य उपदेश दिया है वह उसी सत्यान्वेषी युक्ति के सहारे स्थित होने के कारण अजोड़ है
अवनति या उन्नति का क्या क्रम है, किस कारण से भावनाओं में कालुष्य आता है व किससे रुकता हैं अथवा किस से चला जाता है, आदि प्रश्नावलियाँ मानों वृत्ताकार हो उस परम् मेधावी के अटूट ज्ञान कोष के सन्मुख याचना करने लगीं । उत्तङ्ग विशाल पार्वतीय श्र ेणी से क्रमशः विगलित होती हुई अतुल हिमराशि, जिस प्रकार सहस्रों धाराओं में प्रस्रवित हो महानद का निर्माण करती हुई, समतल भूमि पर अस्खलित गति से असर हो, समस्त क्षेत्र विक्षेत्रों को प्लावित करती हुई,
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