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सर्वत्र आनन्द की सौम्य शोभा जिस तरह प्रसारित करने में समर्थ होती है। महावीर की अगाध ज्ञान मेधा भी उसी तरह सत्य का विवेकपूर्ण विवेचन करने की और बढ़ती चली । ज्यों २ तत्कालीन जिज्ञासुओं की तात्त्विक प्रश्नमाला उनके सन्मुख उपस्थित होने लगी, वे समस्याओं को-उनझनों को सुलाते गये और उनके तात्त्विक सिद्धांत का निर्माण होता गया।
जीव की अन्तर भावनाओं के स्वरूप को यथावत् समझने समझाने के लिये लेश्याओं का वर्णन किया। उन्होंने भावनाओं के विकृत या क्रमशः सुस्थिर होने वाले स्वरूप का बोध करने के लिये लेश्या विचार प्रणाली बड़ी अनमोल व तु है।
क्रमशः अशुद्धतर भाव किस प्रकार विशुद्ध होते हैं एवं इच्छा आकांक्षा या वासना किस तरह परिवर्तित हो जीव को युक्त अथवा अयुक्त परिस्थितियों की ओर ले जाती है व उस समय जीव का अन्तर व बाह्य व्यवहार कैसा रहता है यह लेश्या द्वारा दर्पण के प्रतिबिंब की तरह, सहज ग्राह्य हो जाता . है । लेश्या साहित्य अद्भुत है और इसे मनोभावों का माप यन्त्र कहा जा सकता है।
दार्शनिक परिभाषाओं में इसका कोई विशेष स्थान न होते हुए भी तत्त्व विवेचन में इसका महत्व अकिचित्कर नहीं है । कृष्ण से क्रमशः शुक्ल होती हुई मनोवृत्तियों का उत्थान पतन, उत्कर्ष विकृर्ण कैसे होता है, यह समझने के लिये एवं तदनुसार सम्हल कर अपनी उर्ध्वगामी प्रगति को अक्षुण्ण रखने के लिये मानव इस लेश्या प्रवचनसे अत्यंत उपयोगी सुझाव लेसकता है।