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________________ आकाश में चारों ओर प्रसारित होते रहते हैं । शब्द निमेष मात्र में आकाश में सर्वत्र व्याप्त हो जाता है-यह प्रवचन जैन संस्कृति की अति प्राचीन थाती है । रूप भी नैपथ्य से ग्राह्य हो सकता है अर्थात् रूप निर्वाण करने वाले तद्रूपी सूक्ष्म स्कंध भी आकाश प्रदेश में चारों ओर विस्तरित होते रहते हैं, इसी तरह प्राण रस एवं स्पर्श के अणु भी इतस्तः आवागमन करते हैं-ये यह तथ्य किसी पागल के प्रलाप नहीं बरिक मनोधारा के अन्तर प्रकाश क्षेत्र में सतत् प्रतिबिंबित होने के उपरांत निश्चित किये हुये सत्य हैं। विचार-ज्ञान की आपेक्षिम पराकाष्टा तक पहुँचने वाले महानुभाव स्वानुभूति द्वारा इन सत्यों को प्रमाणित कर चुके हैं, तथा इन सत्यों की युक्ति परिपक्वता स्वतः प्रमाण है कि इनको निर्विवाद मान लेना चाहिये, पर हम अपनी ना समझी के कारण इन सत्यों का योग्य आदर नहीं करते। किंतु इन्हीं सत्यों को शोध पथ के उस पार उद्वेश्य के सिंहासन पर विराजमान का पाश्चात्य वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि भारतीय ऋषियों की प्रयोग क्षेत्र में भी अत्यंत दूर तक पहुँच थी, गहरी परिपक्व व सारभूत होने के साथ २ वह पहुँच उपयोग सुलभ भी थी, अन्यथा केवल प्रयोग से सिद्ध हो सकने वाले सत्यों का इतना निःशङ्क, स्पष्ट व युक्त उल्लेख सम्भव नहीं हो सकता। पुद्गल के कारनामों पर, जीव के साथ उसके सम्बंध के विषय में एवं उस सम्बंध की संख्यातीत धारणाओं के स्वरूप पर महावीर ने उदार चित्त से प्रकाश डाला था। वह साहित्य आज ज्यों का त्यों उपलब्ध होता और पुराकाल मेधावी उसे मान कर
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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