SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४६ ) व्यवहार को उदार बनाते तो आज की दुर्दशा इतने कुत्सित रूप में घटित नहीं होतीं । स्कंध, देश, प्रवेश व एक स्थानीय दो स्थानीयादि एकारक, द्वयक से लेकर अनंतागुक स्कंधादि व विश्रा सूक्ष्म - स्थूल निर्माण योग्य भिन्न वर्गणाओं आदि का उपलब्ध उल्लेख भी असाधारण है । इस अत्यन्त संक्षिप्त निवन्ध की परिधि में यथास्थान पूर्ण नामोल्लेख भी नहीं हो सकता; किंतु जिज्ञासु के लिये इस प्रयत्नशील होना आवश्यक है । अवकाश स्वभावी आकाश को भी स्वतन्त्र द्रव्य माना महावीर नें । जड़ जीव की अठखेलियों के लिये स्थान तो चाहिये यही स्थान आकाश माना गया । अवकाश का गुण जीव या जड़ में जब नहीं है तो इस अत्यावश्यक गुण को धारण करने वाले द्रव्य को मानना यथार्थ व युक्ति पूर्ण है । अवकाश में ही पदार्थों ( जीव जड़) की स्थिति है किन्तु पदार्थ के द्वारा अधिकृत किये जाने पर भी अवकाश का विलोप नहीं होता, एक ही स्थान में अपेक्षाकृत स्थल एवं सूक्ष्म पदार्थों की स्थिति निर्वाध रूप से हो सकती है । स्थूल पदार्थों को एक दूसरे से बाधा पाते हुए हम निरंतर देखते हैं, क्योंकि स्थूल स्कंधों का ऐसा ही व्यवहार है; साथ २ विशेष चक्षु से यह अविदित नहीं रहता कि अपेक्षा कृत सूक्ष्म स्कन्ध न्याबाध गति से स्थूल वस्तुओं को भेद कर निरंतर आवागमन करते रहते हैं । नियम यह है कि जो जिस को ग्रहण नहीं करता - जो जिसके योग्य नहीं - जिसके साथ जिसका समान धर्म नहीं, वह उससे बाधा नहीं पाता । यह तो बाधा लेने देने
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy