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( ३० ) देखकर । यहा सानुकूल दोनों तरह की परिस्थितियों का वर्णन मिलता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद भी अगोचर नहीं रहे हैं।
इन सब से अद्वितीय है जड़ानुयायी कार्मिक कही जाने वाली प्रवृत्तियों का जीव की भावनाओं के साथ का सम्बन्ध, जिसका उल्लेख भी महावीर की प्रखर विशुद्ध ज्ञानधारा से अगोचर न रहा । कर्म के महत्व व परिणाम को लघु या विशाल बनाने वाली अन्तर प्रेरणा के आधार पर किये गये चार विभाग समस्त कार्मिक उछल कूद के रहस्य को प्रकट कर देते हैं । जीव रसास्वादन की तरह जितना लुब्ध हो अनुचित वासनाओं का
आस्वादन करता है, तन्मात्रा में उसकी भावनाओं पर कालुष्य की गहरी रेखा खिंच जाती है, एवं परिणाम को भोगते समय उसके कष्ट की गहराई उतनी हो तीब्र व अन्त तल स्पर्शी हो उठती है। पर के सुख की अवहेलना कर या अवज्ञा कर जितनी उपेक्षा के साथ वह दूसरों को दुख देने को तत्पर होता है, उसके अनुरूप, कर्मोदय काल की अवधि उतनी बड़ी बन जाती है। बाहर से आच्छादित करने पर भी अन्तर प्रवृत्तियों के अनुरूप कार्मिक भावधारा का वर्गीकरण होताहै; ताकि परिणाम के समय ठीक वैसा ही प्रकृति को बाधा खड़ी हो । एवं सर्वाधिक अन्तर तलस्पशी विभाग था चेतन भावनाओं पर जड़ के प्रभाव के कारण होने वाले (चेतन में ) विद्रूपीकरण का वर्णन । ____ कर्म वास्तव में जीव को अयुक्त पराश्रयी भावनाओं का द्वितीय नाम है। पर को। जड़ कहते हैं, इस पर के आश्रय से भावनायें प्रभावित होती हैं। जड़ स्वतः तो कर्म है नहीं, न कर्म