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कोई स्वतन्त्र द्रव्य कहा जा सकता है कि जीव की प्रवृत्ति विशेष के कारण उस पर आ लदे या चिपक जाय । कर्म जीन की विकृत प्रवृत्ति भिन्न और कुछ नही । चैतनत्त्व के असंख्य भावाणुओं में जिस प्रकार जिस २ रूप में विकृति की उपलब्धि होती है, उसे ही महावीर बोल उठे - प्रदेश बंध, यही प्रदेश बंध चेतन व जड़ के सम्बन्ध स्वरूप को स्पष्ट करता है । इस प्रदेश वध के कारण जड़ जीव के संयोग से उत्पन्न हुये वैचित्र्य को कर्म कहा गया है, इसका प्रभाव परस्पर दोनों पर होता है । प्रदेश " जैन सिद्धांत का पारिभाषिक शब्द है; इसके महत्व को समझने के लिये पृथक ग्रन्थ का निर्माण करने की आवश्यकता है । आजतक आधुनिक विज्ञान या
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दार्शनिक सिद्धान्त, प्रदेश के समान सूत्रम विभाग का बोध कराने वाले भाव का अनुसंधान नहीं कर सका हैं । चेतन, प्रदेश बंध के कारण ही जीवाकार में नाना प्रकार की अठखेलियाँ करता है। कर्म की मीमांसा बन्धन मुक्ति व ज्ञान की उपलधि के लिये कितनी महत्वपूर्ण है, यह तो कोई अन्तर भावों में प्रवेश कर के ही अनुभव कर सकता है पर युक्त्याश्रयी व अत्यन्त सुस्पष्ट होने के कारण बुद्धि के समकक्ष भी इसका मूल्य अमूल्य है ।
महाबीर ने भाव शुद्धि व कर्ममुक्ति के सहारे जीव के उन्नति व अवनित क्रम का सुलभ बोध कराते हुये आरोहण अवरोहण के कई स्थिति स्थान बताये, जो जीव के विकास स्तर को अवगत करने के लिये मापयन्त्र के सदृश हैं। अमुक वासनाओं को