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( २६ ) खोने के लिये उद्यत न हो सके। उन्होंने कहा कि “चेतन, यहां इस विशालता तक पहुँच कर भी, व्यक्तित्व को नहीं खोता" । विशालता उसे लील नहीं जाती, बल्कि वह उस दिगदिगंतव्यापी प्रवाह की शक्ति का मानों अधिनायक हो जाता है।
अंधकार से आलोक तक पहुँचने के क्रम का दिग्दर्शन कराने के लिये उन्होंने जो व्यवस्था बतायी, वह शायद, समस्त वाङ्मय में अद्वितीय है। उनके कर्मसिद्धांत की व्यवस्था के समान परिपूर्ण कभी कोई अन्तर भावों का वर्गीकरण न कर सका । अनभिज्ञ समान्य बुद्धि, मध्यकालीन संप्रदायवादियों के हाथों कुछ अनावश्यक परिवर्तनों के समाविष्ट किये जाने पर भी महावीर की कर्म व्यवस्था अजोड़ है। उदाहरण स्वरूप हम ज्ञान का आवरण करने वाले मनोभावों को लें तो, ईहा, अवाय, धारणा आदि भेदों से लेकर चक्षुग्राह्य सूक्ष्म तत्त्वों के आधार पर स्थिर रहने वाले ज्ञान सम्बन्ध का जैसा उल्लेख पाया जाता है; वह हमारे समस्त मनको प्रफुल्लित कर देता है। ज्ञान के ये विभाग साहित्य जगत् में अद्वितीय हैं। मोह के आवरण को लेकर जिन अन्तर भावनाओं की परिस्थितियों का दिग्दर्शन जैन वाड्मय में मिलता है वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने को अन्तर देखने की बड़ी सुविधा प्रदान करता है।
कौन सी अयाचित भावनाएं क्यों कैसे असावधान जीव को अभिभूत कर अपनी परिधि से बाहर नहीं होने देती यह सहज में अनुमित किया जा सकता है महावीर के कर्म विभाग को