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________________ आत्मा के स्वातंत्र्य में उसके गुण व स्वभाव की अभिव्यक्ति मानी, अकर्मण्यता व दुष्कर्मण्यती को पाप तथा शुद्ध क्रिया शीलता व अनपेक्ष आत्मज्ञान विकास को धर्म मानकर सत्यपंथ को निःशंक किया, व्यवहार व निश्चय को यथारूप में ओवश्यकतानुसार महत्व देकर विधि निषेधका क्रम समझायायह जैन संस्कृति को सिद्धांत व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की हुई व उत्पन्न हो सकने वाली कुछ सामान्य विशेषताओं का विवरण है। किसी भी परिस्थिति का ( जिसमें वस्तु जड़ जीव की सभी अवस्थाएं सम्मिलित हैं ) निर्माण होने के पूर्व जैन संस्कृति द्वारा मान्य पंच समवाय कारण की धारणा भी अत्यंत उपयोगी व विचारणीय है। मानव सबसे महान् है । शारिरिक गठन व मस्तिष्क विकास दोनों ही मानव में संपूर्ण होते हैं । उहापोह करने की रुचि के कारण वह अतीत से वर्तमान का सूत्र एकत्रित-कर लेता है एवं भविष्य को तदनुसार गढ़ कर निष्कंटक बना लेता है । स्वार्थाभाव, निष्कपटता, अहिंसा, नष्काम्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अनहंकारत्व, अलिप्तता आदि नकरात्मक प्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले समभाव को धारण कर मानव क्रमशः औदाय, सरलता, सत्यता, क्षमा, साधुता, प्रेम, करुणा ज्ञान, ध्यान, प्रभृति स्वातन्त्र्य व अनं तशक्तिदायिनी महामेधाविनी प्रशम भावनाओं की बाह्य अभिव्यक्ति के सहारे अपने चरम स्वरूप तक पहुँच जाता है । अतः उसकी पहुँच को अतिक्रम करने की शक्ति अन्य किसी शरीर धारी में नहीं होती। __प्रकृति ( षड् द्रव्यों की सामुहिक क्रियात्मक शक्ति ) के अंतराल में रहे हुये निगढ़ तत्वों का रहस्योद्घाटन कर मानव कभी अपने भौतिक सुख को सहस्र गुणा विस्तारित करने में समर्थ हो जाता है तो कभी अन्तर मुखी ज्ञानमयी भाव
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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