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शक्तियों की, पारतंत्र्य से विमुक्त, पुंजीभूत लोकराशि से दिग्ददिगंत को प्रकाशमान करता हुआ सब कुछ का ज्ञाता ब जाता है ।
संसार में कोई पूजनीय है, श्रद्धय है, आधारभूत है, मार्गदर्शक है, उत्तम अथवा श्रेष्ठ है तो यह मानव है । वह स्वयं सब कुछ है पूर्ण है किसी का प्रतिनिधि नहीं । अपने आप को पूर्णतया पाले तो और कुछ प्राप्य नहीं रह जाता, उसके अपने पूर्ण विकसित रूप से बढ़कर कोई ध्येय नहीं । वहीं ● किसी का राम है किसी का महावीर तो किसी का बुद्ध ।
एक मात्र युक्ति व तुलनात्माक अनुसंधान द्वारा एक के बाद एक शक्ति की प्राप्ति, वासनाओं की मुक्ति व आत्म गुणों की क्रमशः अभिव्यक्ति सिद्ध होती है, यह है जैन सिद्धांत की चिर स्थिर धारणा । प्रत्येक के लिये एक ही नियम है एक हो मार्ग है एक ही स्थिति में से होकर चलना पड़ता है सब को, किसी के लिये कभी कोई नियमोल्लंघन नहीं होता क्योंकि निरपेक्ष सदा एक स्वरूप ही है । अत्युच्च विस्तृत पर्वत शिखर की तरह सत्य के जिस स्थान पर व्यक्ति पहुँचता है वहाँ के दृष्टिकोण से सभी को पदार्थ का स्वरूप तद्रूप में ही भासमान होता है; जो जितना ऊँचा चढ़ता है दृश्य विस्तृत होता चला जाता है - इस में कभी कोई व्यवधान नहीं होता ।
अतः जैन संस्कृति ने मानव को सदा यही कहा है कि "तुम अनंत विचार शक्ति सम्पन्न हो, तुम्हारे पहुँच की कोई सीमा नहीं, कोई बाधा तुम्हारी भावशक्ति को तुरण नहीं कर सकती, प्रतः तुम अपना परिचय प्राप्त करके विचार विकास के पथ पर चलते चलो, किसी और का भरोसा मत करो, तुम स्वयं त्राता हो अन्य कोई दूसरा तुम्हारी प्रगति में सहायता या बाधा नहीं दे सकता अतः बढ़े जाओ रुको यत । पाशविक
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