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("६८ ) जैन संघ के दो टुकड़े तो पुराकाल में ही हो चुके थे और अब तो न जाने मेढ़कों की तरह टर २ करने वाली कितनी टोलियाँ बन चुकी हैं।
चरित्रवान, ब्रह्मचारी, मेधावान गुणी, अध्यात्मप्रेमी, तत्वदर्शक व गीतार्थ साधुओं का नितान्त अभाव है जैन संघ में । मूों की टोलियाँ बरसाती घास फूस की तरह भेष धारण कर जैन सिद्धांत का उपहास करने का कर्तव्य अवश्य पूरा करती है; प्रतिष्ठा व लोभ इबना घर कर चुका है कि इनको पाने के लिये साधुओं ने चरित्र व ज्ञान दोनों की तिलांजली देदी है।
सुधर्म, शय्यंभव, भद्रबाहु, स्थूलिभद्र, स्कंदिल, कुन्दकुन्द उभास्वाति, सिद्धसेन, समन्तभद्र, जिनभद्र, हरिभद्र, अकलङ्क विद्यानन्दी, धनपाल, हेवचन्द्र, आनन्दघन व अन्तिम सितारे यशोविजय देवचन्द प्रभृति ज्ञानयोगियों की परम्परा कहां गयी ? अन्तिम यशोविजय जी ने स्पष्ट शब्दों में जैन संघ की तत्कालीन दुर्दशा का जैसा वर्णन किया है आज उससे भी सहस्र गुणा पतन हो चका है। क्या अब भी जागृत होने की आकांक्षा पैदा नहीं होती ? पतन की भी कोई हद होती है। हम विज्ञ से अनुरोध करते हैं कि इस ओर कदम बढ़ावें व इस ज्ञान भंडार की रक्षा करें।
साधु संघ की जब यह परिस्थिति है तो उपासक वर्ग की क्या दशा होगी यह सहज में ही अनुमेय है । अधिक न लिख ' कर हम इतना ही संकेत करना पर्याप्त समझते हैं कि आज
जैन संघ दो विपरीत धाराओं के बीच छिन्न भिन्न होता जा