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________________ (१७ ) अधिक दुख तो हमें तच होता है जब पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त भारतीय भी दूने जोर से उनकी हाँ में हाँ मिलाते है और भारतीय विद्याओं का उपहास व अवहेलना करते हैं। उन्हें अपनी अनभिज्ञता पर लज्जा नहीं आती, किंतु ढीठ की तरह अपने पूर्वजों की ज्ञान-गवेषणाओं को तुच्छ बनाने में अपनी पाश्चात्य शिक्षा का गौरव मानते हैं वे। . . हमें अब इस संस्कृति की गाथा को यहीं समाप्त करना है। मुख्य विशेषताओं का जिक्र किया जा चुका है, विस्तृत विवरण बोध के लिये हम मूल ग्रंथों का अध्ययन करने की प्रार्थना करते हैं। जन कहलाने वाले समाज से हमारा यह करबद्ध अनुरोध है कि या तो वे जागृत हो जैन-ज्ञान-विशेषताओं को मानव जगत् के सन्मुख रखें अन्यथा व्यर्थ का मोह छोड़ इस साहित्य को न तो छिपावें और न कलुषित करें। ____ महावीर ने जैन संघ का पुनर्गठन करते हुये भावी काल के लिये यह व्यवस्था सुझायी थी कि संघ के सम्मिलित निर्णय द्वारा ही शासन का नियंत्रण किया जाय - आज यह नियम भी प्रायः विलुप्त हो चुका है । अधिकांश में अशिक्षित या कुशिक्षित अभिमानौ या सङ्कीर्ण वृत्ति पाले संप्रदायवादियों के अतिरिक्त साधु या आचार्य पद को शोभित करने के लिये जैन संघ को और कोई व्यक्ति नहीं मिलते । इनकी भीड़, में भूले भटके कहीं कोई मेधावी उपज भी जाता है तो एकाकी होने के कारण उसके परामर्श की अधिकांश में अवहेलना ही की जाती है । समय परिवर्तन के साथ २ व्यवहार को न मोड़ने के कारण
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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