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१० ) नहीं । यह सत्य सामान्य बुद्धि प्रयोग द्वारा हृदयङ्गम नहीं होता पर अनुभवी व्यक्ति इस ठोस उक्ति को समझ सकते हैं। - जैन वांग्मय ने पाप व पुण्य ( अशुभ व पौद्गलिक शुभ) दोनों वृत्तियों को पराश्रयी होने के कारण तात्त्विक दृष्टि से । अनुपादेय माना है । तुलना द्वारा बहु पापकी अपेक्षा अल्प पाप ग्राह्य है, क्रमश; उस अल्प से दूसरे अल्प पर चलना उन्नति पथ का क्रम माना गया है । पुण्य संयोग-जन्य उत्पन्न होने वाली आपेक्षिक व अांशिक स्वार्थमयी वृत्तियों से उत्पन्न होता है, अतः उच्च परिस्थितियों में उसको भी अग्राह्य माना गया है।
पाप पुण्य दोनों को विदा देने की आवश्यकता है, क्योंकि एक पराश्रयी दुख रूप है तो दूसरा सुख रूप दोनों ही आत्मा को पराधीन कर देते हैं। अतः शुद्ध परिणति को ही उपादेय मानने को उद्यत होना उचित और युक्ति पूर्ण सिद्धात है । यह एकांत प्रवचन नहीं है; तत्त्व विवेचन के समय तत्त्व स्थापना के समय निश्चित की हुई बात है।
पर व्यावहारिक जीवन में अशुभ, हिंसक पर-दुखदायिनी व कपट पूर्ण वृत्तियों को परित्याग करते हुए शुभ सेवा भावी, अहिंसक, परोपकार पूर्ण, अनुकम्पा प्रधान वर्तन को ग्रहण करने की नितांत आवश्यकता है । दया व औदार्य तो प्रधान. चिन्ह हैं शुभ वर्तन के, इसलिए इनके निरंतराभ्यास से भावों व कायों में जो सौम्यत्त्व आना है वही क्रमशः अन्तर परिशुद्धि व सुबोध की प्रेरणा देता है एवं परिणामतः आत्मा शुद्ध (ज्ञान ) की ओर अग्रसर होता है।