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जाती है, दूसरी आत्मा के परिशुद्ध चेतनात्मक ज्ञान मय परिणामों की, जागृति अपराश्री, प्रेरणा प्रदान करने वाली शक्ति जो निस्वार्थ भाव से प्रकृति के अन्तर सत्यों को सष्ट करती है । पारिभाषिक शब्दों में, एक को क्षायोपशमिक भाव मन तो दूसरी को आत्मपरिणति रूप भाव मन कहा गया है ।
प्रायत्निक वृत्ति निरोध की अन धारा के परिणाम स्वरूप आवेश, उद्विग्नता, लिप्सा, व्यामोह, काय अज्ञानांदि के विलुप्त होने पर उदित हुई अंतर शांति के उपरांत जब वासनाओं का स्वाभाविक तिरोभाव सार्थक होता है तब कहीं आत्मपरिणति शक्ति को अंतर वाह्य में व्यक्त होने का अवसर मिलता है। पूर्व भाव मन के क्रमशः विशुद्ध होनेपर ही इस उत्तर भाव मन का आविर्भाव सिद्ध है ।
विकास पथ की दो सीढ़ियो का उल्लेख भी बड़ा उपयोगी है । सर्व प्रथम अयुक्त वृत्तियों को रोकने के लिये सम्बर को जीवन में उतारने की आवश्यकता है तब कहीं द्वितीय सोपान निर्जरा (सकाम) जिसे कर्म रूपी आवरण का नाश करने की क्रिया कहते हैं, जीवन में घट सकती है । यों तो औधिक भोग के कारण निर्जरा सदा सर्वदा होती रहती है, उसी तरह कर्मागमन को सूचित करने वाला श्रव भी निरंतर जारी रहता है, परन्तु सम्वर प्रयत्न के परिणाम स्वरूप ही आता है ।
वास्तव में है भी यही बात अवांछनीय वृत्तियों को रोकना दुष्कर है शुद्ध प्रवृत्तियों को लाने का प्रयत्न करना उतना दुष्कर
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