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आदि ज्ञान के अल्पबहुत्त्व ( क्षय उपशम ) से उत्पन्न होता है, उसको लब्धि इन्द्रिय व इन सब की सम्मिलित सहायता से पदार्थ का बोध कराने में सहायक पारिषामिक शक्ति उपयोग इन्द्रिय है । इसी तरह मनको जैन परिभाषा में इषत् इन्द्रिय या नो इन्द्रिय कहा गया है। ज्ञान का मुख्य साधन विचार धारा का प्रेरिक मन कभी इद्रियों की सहायता से पदार्थ का बोध करता है तो कभी स्मृत्यादि अनुमान की सहायता से । इसीलिए ऐसे अनुमान को श्रु त की सज्ञा दी गई है-अल्पांश में मति युक्त व वह्वांश में यह श्रत है ! विस्तृत विवेचन से इस विषयक सूक्ष्म सत्य का अाविष्करण सम्भव है एव साहित्य में सहायक सामिग्री का भी अभाव नहीं है।
मन के द्रव्य व भाव रूप दो विभाग किये हैं जन परिभाषा ने। द्रव्य मन वह विशिष्ट शक्ति है जो शरीर (पूर्ण पर्याप्त इन्द्रियों का) का श्राश्रय ले तदनुसार सङ्कल्प-विकल्प, पूर्वापर सम्बन्ध आदि विचार विमर्श महित पदार्थों का ज्ञान व बोध कराती है। यह शक्ति यद्यपि भाव प्रदत है फिर भी विशेष कोटि के शरीर निर्माण बिना उत्पन्न नहीं होती । वह निरंतर उपयोग की अपेक्षा रखती है। सर्व श्रेष्ठ विशाल मस्तिष्क निर्माण के कारण मानव देह में ही इसको पूर्ण विकसित होने का अवसर मिलता है पांचों इंद्रियों की प्राप्ति के बिना तो इस शक्ति का प्राविर्भाव भी सम्भव नहीं होता।
भाव मन के दो विभाग माने गये हैं, एक तो सुख दुखादि परिणामों को अनुभव करने की शक्ति जो प्राणि मात्र में पायी