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स्कंधों को छोड़कर कूच कर जाते है । यही जैन सिद्धांत स्थिर करते हुये कहता हैः-अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों कोटि के जीव आते है (प्रत्येक निर्माण के समय) जिनके पास पूर्ण शक्ति संचय नहीं होती वे तो वास्तविक निर्माण के पूर्व ही चल देते हैं और जिनके पास पूर्ण शक्ति संचय होती है वे देह के स्वामी बन पूरा शरीर बना लेते हैं। यही कुछ सामान्य उलट फेर के साथ प्रत्येक (जीव के देह व जड़ के स्कन्ध निर्माण ) निर्माण के लिये अमोघ बीज मत्र है।
अपर्याप्त स्क धो से निर्माण सफल नहीं होता, पर्याप्त शक्ति सम्पन्न अवयवों के एकीकरण की आवश्यकता है, निर्माण के लिये । सम्पूर्ण स्वस्थ शरीर के लिये जीवापेक्षित कई तरह की पर्याप्तियों की आवश्यकता मानीहै सिद्धान्त ने-अाहार पर्याप्ति, भाषा इंद्रिय व मन आदि पर्याप्तियों के क्रम को इतने चतुर ढङ्ग से सजाया गया है कि साधारण बद्धि भी सरलता से समझ सके कि किस २ देह के लिये किस २ पर्याप्ति की आवश्यकता है।
ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय से विशिष्ट द्रव्येद्रिय व भावेन्द्रियों के विभाग व उनके फिर निवृत्ति व उपकरण तथा लब्थि व उपयोग
आदि आदि कोठियों में पुनर्विभाजन अति सुन्दर हैं । इन सबकी व्याख्या करने बैठे तो यहां समय स्थान का सङ्कोच फिर भाड़े आयेगा सामान्य परिचय कराने अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा नहीं है।
पोद्गलिक प्राकृति निवृति इन्द्रिय, ज्ञान कराने में समर्थ पौद्गलिक शक्ति उपकरण इन्द्रिय, आत्मिक परिणाम जो मति