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धारणाओं के प्राथमिक स्वरूप का आभास पाने लायक सामग्री है ताकि आधुनिक विज्ञान को और अधिक शोध के लिये बीज मन्त्र दिये जा सके।
वातावरण में विद्यमान अवयवो को लेकर शरीर निर्माण करने की प्राकृतिक क्रिया तथा माता पिता के संयोग से उनके शरीरावयवों को ग्रहण कर देह धारण करने की क्रिया जैनों से अविदित न थी, साथ २ वे यह भी मानते थे कि अनुकूल अवयवों को एकत्रित करने से देह निर्माण किया बुद्धि कौशल द्वारा भी संपादित की जा सकती है। सूक्ष्म व स्थूल या अल्प व विशेष विकास वाले प्राणियों का इस व्योम में अनगिनत संख्या में निरन्तर अव्यावाध गति से भ्रमण चालू है ,बुद्धि कौशल का प्रयोग कर अवयवों को एकत्रित करने मात्र देरी है, कोई न कोई जीव श्रा बसेगा । क्षुद्र क्रमि से लेकर विशालकाय हस्ती तक के देह निर्माण को अवयव संयोग द्वारा सम्भव भानता है जैन सिद्धांत ।
देह निर्माण के बीज मन्त्र स्वरूप पर्याप्त अपर्याप्त सूत्र द्वारा होने वाले सिद्धांत की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। विशिष्ठ कोटि के सूक्ष्म अणु स्कंधों की अपेक्षा होती है प्रत्येक विशिष्ठ शरीर निर्माण के लिये । शरीर निर्माण के पूर्व उन विशिष्ट स्कंधों में एक प्रकार की हलन चलन होती है। जैन मान्यतानुसार वे स्कंध इस प्रकार की हलन चलन योग्य जीवों की प्रेरणा पाकर ही करते है । अनगिनत संख्या में इस तरह के जीव प्रेरित स्कंध कुछ समय उपरांत आपस में मिलकर उद्दिष्ट कोटि का शरीर निर्माण करते हैं। उनमें से एक जो कर्मातुसार पूर्ण होने की योग्यता रखता है वह तो देह का स्वामी बन जाता है और बाकी के सब जीव उन