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सर्वज्ञवाद
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है। तथा पुण्य, पाप और श्राश्रव यह संसारका कारण है। संवर
और निर्जरा मुक्तिका हेतु है । इस विषयका विशेषतः स्पष्टीकरण करनेके लिये ही यहाँ पर हमने आथव वगैरेहका भी पुदा उल्लेख किया है इसके सिवाय इन तत्वोंको जुदा उल्लेखित करने में हमारा अन्य कुछ भी उद्देश नहीं।
इस सम्बन्धमें और भी कितनी ही बातें जाननेलायक हैं परन्तु वह सव अन्य जैन ग्रंथो से जान लेनेकी आवश्यकता है।
कर्मके श्रेष्ठ पुग्दलोका नाम पुण्य है, कर्मके खराव पुग्दलोंका. नाम पाप है। मन, वचन और शरीरकी प्रवृत्तिका नाम आश्रव है कि जिस प्रवृत्तिके द्वारा कर्मके पुग्दल टपकते रहते हैं ।यह आश्रव दो प्रकारका है, एक पुण्यका हेतु और दूसरा पापका हेतु । श्रावको रोकनका नाम संवर है । मन, वचन और शरीरको संयम रखनेसे और यत्नपूर्वक याने किसीको भी दुःख न हो इस प्रकारके चलनेसे, बोलनेसे, भोजन प्राप्त करनेसे, वस्तुको लेने
और रखनेसे, एवं यतना पूर्वक निहार करनेसे और धर्मका चिंतन करनेसे वह आश्रव रुक सकता है, याने संवर होता है। उस संवरके भी दो प्रकार हैं, एकका नाम सर्वसवर और दूसरेका देश संवर है । सर्वसंवरमें आशवको सर्वथा रोक दिया जाता है और देशसंवरमें पाश्रवको थोड़ा थोड़ा रोका जाता है । राग और द्वेप सहित आत्माका किसी भी प्रवृत्तिके कारण जो कर्मके पुग्दलोंके साथ सम्बन्ध होता है उसे वन्ध कहते हैं। यद्यपि वह समस्त वन्ध एक जैसा ही है तथापि उसके मुख्य चार प्रकार हैंप्रजाति बन्ध,स्थितिवन्ध, अनुभाग वन्ध और देशवन्धी प्रजातिवन्धके मुख्य पाठ प्रकार हैं । शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अन्तराय वेदनीय नामगोत्र और आयुष्य । तथा इस ज्ञानावरणका वन्ध भी अनेक प्रकारका है । यह वन्ध प्रशस्त और प्रशस्त भी है । जो प्रशस्त वन्ध है वह तीर्थकरत्व वगैरह शुभ फलकी प्राप्ति कराता है और जो अप्रशस्तवन्ध है वह नारकीके दुःख वगैरह अशुभ फलको पैदा करता है। प्रशस्त परिणामके कारण होनेवाले बन्धसे सुख होता है और अप्रशस्त परिणामके होनेवाले वन्धसे दुःख होता है