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जैन दर्शन
भिन्न तत्व हैं इस लिये इन्हें जुदा ही मानना चाहिये तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि किसी भी जगह जीव और अजीवसे जुदे होकर ये तत्व रह ही नहीं सकते। जीव और ज्ञान ये कहीं भी सर्वथा भिन्न मालूम नहीं देते, जीव और उसमें रही हुई कोई भी किया ये कहीं भी सर्वथा भिन्न नहीं देख पड़ते एवं घट और उसमें रहा हुआ रूप ये भी दोनों सर्वथा भिन्न नहीं देख पड़ते । प्रत्युत ये समस्त एक साथ हीरहते हुयेमालूम होते हैं। अर्थात् ज्ञान और क्रिया ये दोनों जीवरुप मालूम होती हैं एवं घट और घटका रूप ये दोनों भी एकरुप ही मालूम देते हैं। इस लिये किसी भी रीतिसे इन गुण वगैरह तत्वोंको भिन्न तत्व माननेकी जरूरत नहीं,। ऐसा होनेपर भी यदि उन्हें भिन्न ही माना जायगा तो ये तत्व सर्वथा निराधार हो जायंगे और ऐसा होनेसे उनकी सद्रूपता भी चली जायगी।।
तथा वौद्ध दर्शनमें जो दुःख वगैरह तत्व बतलाये हैं वे भी जीव और अजीवसे जुदे नहीं हो सकते । वास्तविक रीतिसे तो जीव और अजीव ये दो ही तत्व समस्त संसारमें व्याप्त हैं। इसलिये किसी भी गुणक्रिया या वस्तुका समावेश• इन दोमें खुशीसे हो सकता है। अतः इन प्रधान दो तत्वोंसे एक भी अन्य जुदा तत्व मानना यह युक्तिसंगत नहीं हो सकता । हम तो यहाँतक कहते हैं कि जो कुछ इन दो तत्वोंसे सर्वथा भिन्न ही कल्पित किया जाता है वह तत्वरूप तो हो ही नहीं सकता, परन्तु गधेके सींगके समान असद्रूप है । इस प्रकार होनेसे ही जैन दर्शनमें इन दो ही तत्वोंको मुख्यतया माना है ।
प्र०-यदि जैन दर्शन इन दो ही तत्वोंको मुख्य मानता हो और दूसरे तत्वोंका इनकार करता हो तो उसने ही दूसरे पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वन्ध, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्व किस लिये बतलाये हैं ? क्योंकि उसके ही कथनानुसार ये सातो तत्व जीव और अजीवमें समाये जा सकते हैं।
उत्तर-कितने एक दर्शनवाले पुण्य और पापको सर्वथा मानते ही नहीं, उनके विवादको शान्त करनेके लिये हमने यहाँ पर इन तत्वोंका मात्र जुदा उल्लेख करके इसका जरा विशेप समर्थन किया