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जैन दर्शन
इसी कारण इस वन्धको दो प्रकारका कहा है। आत्मा और कर्मका वियोग होनेवाली क्रियाको निर्जरा कहते हैं-वह तपरुप है-और तपके बारह प्रकार हैं। शुक्लध्यानको ऊंचेमें ऊंची निर्जरा गिना है। क्योंकि ध्यान यह प्रान्तरिक तप है और तपसे निर्जरा होती है, ऐसा तत्वार्थ सूत्र में कहा है । जो आत्मा हरएक प्रकारके बन्धनसे मुक्त हो गई है और जिसने अपने मूल स्वरुपको प्राप्त कर लिया है लोकके अन्तमें रहे हुये उसके निवासको मोक्ष कहा जाता है। शास्त्र में भी बन्धनसे मुक्त होनेको ही मोक्ष कहा है । इस प्रकार जैन दर्शनसे नव तत्वोंका स्वरूप समझाया ह।
जीववाद इन नव तत्वों में अग्रस्थान धारण करनेवाला जीव तत्व है, इसी लिये सबसे पहले उसका विवेचन इस प्रकार किया जाता है।
जीवका मुख्य चिन्ह--निशान चैतन्य है और यह जीव शान वगैरह गुणोंसे जुदा भी है एवं एक भी है जहाँतक वह रागद्वेष सहित है तबतक उसे भिन्न भिन्न शरीर भी धारण करने पड़ते हैं । यह शुभ और अशुभ कर्मोका करनेवाला है और उन काँके फलको भोगनेवाला भी यही है । ४८ जीवके धर्म अनेक हैं, जैसे कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, दुःख, वीर्य, भव्यत्व, अभव्यत्व, सत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, प्राणधारित्व, क्रोधका परिणाम एवं लोभ वगैरहका परिणाम, संसारित्व, सिद्धत्व, तथा दूसरसे जुदापन आदि इन समस्त धोसे जीव सर्वथा जुदा नहीं है एवं सर्वथा एक भी नहीं है । परन्तु जुदा भी है और एक भी है । यदि जीवको इन समस्त धर्मासे सर्वथा जुदा ही मान लिया जाय तो मैं जानता हूँ मैं देखता हूँ, मैं जाननेवाला हूँ, मैं देखनेवाला हूँ, मैं सुखी हूँ, और मैं भव्य हूँ, इत्यादि इस प्रकार जीवके साथ शान और सुख वगैरहका जो एकत्वका आभास होता है वह किस प्रकार होगा? इस तरहका अनुभव तो प्राणीमात्रको होता है इस लिये इसमें किसी प्रकारका विवाद नहीं हो सकता । यदि इन समस्त धाँके साथ जीवको सर्वथा एक ही मान लिया जाय तो यह धर्म (गुण)