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प्रमाणवाद
२१९ बहुत हैं । विशेप जिज्ञासुको इस प्रकारकी बहुतसी बातें संदेह समुच्चय ' नामक ग्रन्थले जानलेनी चाहिये।।
तथा भट्टके मतवाले जो शानको परोक्ष ही मानते हैं और ऐसा माननेका कारण क्रियाका विरोध पतलाते हैं सो भी यथार्थ नहीं। यदि वे यों कहते हो कि ज्ञान पदार्थो को बतलाता है अतः वह अपना प्रकाश नहीं कर सकता, क्योंकि एक ही साथ दो क्रियायें नहीं हो सकती, तब तो दीपक पदार्थका प्रकाश करता है अतः वह भी शानके समान ही अपना प्रकाश न कर सकेगा, इससे उसे प्रकाशित करने के लिये दूसरे दीपककी आवश्यकतामाननी चाहिये। जो इस तरह और इसी युक्तिसे दूसरा दीपक न माना जाय तो. शानको भी स्वप्रकाशी मानना चाहिये। यदि ऐसा होनेपर भी पक्षपात किया जाय तो इसमें विरोधके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं तथा ब्रह्माद्वैतको माननेवाले अविद्याके विवेकपूर्वक प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिर्फ समात्रको मानते हैं और कहते हैं कि प्रत्यक्ष. प्रमाण निषेधक नहीं परन्तु विधान करनेवाला है। यह भी परस्पर विरूद्वतावाला ही कथन है ।पयोंकि यदि प्रत्यक्षप्रमाण विधान करनेवाला ही हो और वह निषेधक प्रमाण न हो तो उसके द्वारा. अविद्याका निराल किस तरह हो सके ? तथा पूर्वोक्त मीमांसा मतवाले किसी प्रकार देवको नहीं मानते तथापि वे ब्रह्मा विष्णु, और महेश्वर आदि देवोंको पूजते हैं और उनका ध्यान करते हैं यह भी सर्वथा विरुद्ध ही है इत्यादि । इस तरह बौद्ध वगैरह अन्य दर्शनों में पूर्वापर विरोध आता है वह पूर्वोक्त प्रकारसे वतनाया गया है।
अथवा वौद्ध वगैरह दर्शनों में जो जो स्याद्वादका स्वीकार करनेके प्रसंग प्राचीन लोककी व्याख्या बतलाये हैं वे सव ही. पूर्वापर विरुद्धतया यहाँ भी लव दर्शनोमें उचितताके अनुसार दिखला देना चाहिये । वे वौद्ध वगैरह दर्शनवाले पूर्वोक्त प्रकारसे स्याद्वादका स्वीकार करते हैं तथापि उसका खण्डन करनेके लिये युक्तियाँ चलाते हैं, यह परस्पर विरोध नहीं तो और क्या कहा जाय ? अथवा इस विषयमें और कितना कहना चाहिये ? मिलें