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जैन दर्शन
हुये दही और उड़दके दौनोंमेंसे कितने उड़द निकालें ? अतः यहाँ पर इस विषय में इतना ही कह कर विराम लेते हैं ।
जो चार्वाक याने नास्तिक है वह तो विचारा रंक है, वह आत्मा, धर्म धर्म, स्वर्ग, और मोक्ष इनमेंसे कुछ भी नहीं मानता 'अतः उसके साथ चर्चा ही क्या की जाय ? उसका किया हुआ कथन लोगों के अनुभवसे और शास्त्रोंसे सर्वथा विरुद्ध है । वह विचारा दयाका पात्र है अतः उसे छोड़ देना ही ठीक है । ऐसी स्थिति होनेसे ही उसके सामने अनेकान्त वादका स्थापन करना और उसका ( नास्तिकका ) परस्पर विरोध बतलाना यह सव कुछ छोड़ देते हैं। आकारवाले भूतोंमेंसे श्राकार रहित चैतन्यकी उत्पत्तिका होना यह विरूद्ध बात है । क्योंकि भूतोमेंसे उत्पन्न 'होनेवाला या दूसरी जगहसे आता हुआ चैतन्य नजरसे मालूम नहीं होता । जैसे श्रात्माके पास इन्द्रियाँ नहीं पहुँच सकतीं वैसे 'ही चैतन्यके पास भी इन्द्रियाँ नहीं पहुँच सकतीं इत्यादि ।
इस प्रकार बौद्ध वगैरह अन्य सबके शास्त्र अपने २ बनाने वालोंका असर्वज्ञत्व सावित करते हैं, सर्वज्ञत्व तो सावित कर ही नहीं सकते, क्योंकि उनमें परस्पर विरोधवाले अनेक उल्लेख भरे हुए हैं । जैनमत कहींपर जरा भी परस्पर विरोध नहीं आता अतएव उसका मूल पुरुष सर्वज्ञ होना चाहिये, यह बात जैन सत ही साबित करता है ।
जो बाते मूल ग्रंथकारने नहीं बतलाई वे भी कितनी एक यहाँ'पर बतलाई जाती हैं - कणाद, अक्षपाद, मीमांसक और सांख्य मतवाले यो कहते हैं कि समस्त इन्द्रियाँ प्राप्यकारी ही हैं । बौद्धं कहते हैं कि कान और आँखों के सिवाय अन्य सब इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं और जैन प्रांखों सिवाय अन्य सव इन्द्रियोंको प्राप्यकारी मानते हैं ।
श्वेताम्वरोंके मुख्य २ तर्कग्रंथ निम्न लिखित हैं- सम्मतितर्क, • नयचक्रवाल, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, तत्वार्थप्रमाण