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जैन दर्शन रण करता है ] जो कुछ खाता है, जो कुछ ओढता है, और जो कुछ देता है, वह लव कुछ उसीका है"। तथा एक जगह यह भी कथन किया है कि “पुत्ररहित पुरुषकी गति नहीं होती।" तथा अन्यत्र ऐसा कहा गया है कि “सन्तान रहित हजारो ब्रह्मचारी विप्रकुमार स्वर्ग गये हैं।" तथा "मांस भक्षगमेंट, मद्य पीनेमें और मैथून लेवनमें दोप नहीं है क्योंकि वह भूतोंकी प्रवृत्ति है, जो उस कामसे निवृत्ति हो तो बहुत फल है" यह उल्लेख तो परस्पर सर्वथा विरुद्ध है । यदि प्रवृत्तिमें दोप न लगता हो तो निवृत्ति में बहुत फल कैसे हो सकता है ? तथा यह भी कहा जाता है कि " वेदमे विधान की हुई हिंसा धर्मका कारण है" इस वाक्यसे सरासर विरोध भरा है। क्योंकि जब वह हिंसा है तब धर्मका कारण कैले हो सकती है ? और यदि धर्मका कारण है तो फिर हिंसा किस तरह हो सकती है ? यह तो माता है और वंध्या है' इस प्रकारको विरोधी हकीकत है। उन्हीके शास्त्र धर्मका स्वरूप इस प्रकार वतनाया है___ "धर्मका लार सुनो ! और सुनकर उसे धारण करो ! अन्य किसीको प्रतिकूल हो वैसा आचरण मत करो " इत्यादि । अचिमार्गको माननेवाले वेदान्तियोंने इस प्रकारकी कदर्थना की है। "हम जो पशुओं द्वारा पूजा करते हैं सो घोर अंधाकार, डूबते हैं। हिंसा धर्मरूप हो ऐसा कदापि न हुआ है और न होगा।" तथा मृत्युके बाद दूसरे जन्मको प्राप्त हुये जीवोंकी तृप्तिके लिये श्राद्ध वगैरह करना यह सर्वथा अविचारी कार्य है । उनके ही साथी कहते हैं कि-" यदि मृतक जीवोंको भी श्राद्ध द्वारा तृप्ति होती हो तो वुझे हुये दीपककी लोको तेल क्यों न चढ़ा सके ?" इल प्रकार मीमांसक मतमें परस्पर विरोधवाली पौराणिक बातें
३ मनुस्मृती अध्याय ५..श्लोक १५९-अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणां । दिवं गतानि विप्राणामकृता कुलसंततिम् ।।
४ मनुस्मृती अध्याय ५ वां श्लोक ५६-- मांसभक्षणे दोपो न मद्ये नच मेथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु. महाफला ॥