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प्रमाणवाद
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कदापि विकारको प्राप्त नहीं होता वैसे ही उसका बन्ध और मोक्ष भी नहीं होता, इसी प्रकार प्रकृति में भी किसी तरहका विकार न होना चाहिये । क्योंकि प्रकृतिपुरुषके समान सर्वथा नित्यरूप है इस प्रकार सांख्यदर्शनमें भी परस्पर विरोध आता है।
मीमांसक मतमें जो परस्पर विरोध है सो इस प्रकार है-वे कहते हैं कि " किसी जीवको नहीं मारना, किसीको भी हिंसक नहीं बनना" अन्यत्र कहते हैं कि " श्रोत्रियको बड़े बैल या बड़े वंकरको प्रकल्पित करना" अर्थात् देना । एक जगह कहते हैं कि "किसी जीवको नहीं मारना और दूसरी जगह कहते हैं कि अश्वमेधके मध्यम दिनमें तीन कम छहसो पशुओका नियोग करना” तथा “ अनि और सोमके लिये पशुका बलिदान करना, प्रजापतिके लिये सत्तर ७० पशुओंका भोग देना" यह सब ही मात्र परस्पर विरोधवाला ही कथन है एक जगह कुछ और दूसरी जगह कुछ और ऐसा कहनेसे परस्पर विरोधके सिवाय अन्य कुछ भी पल्ले नहीं पड़ सकता। वे एक जगह कथन करते हैं कि "असत्य नहीं बोलना" ऐसा कहकर अन्यत्र लिखते हैं कि ब्राह्मणके लिये असत्य बोलना" अन्यत्र कहते हैं “हे राजन् ! ठट्टा मस्करी करते हुए, स्त्रियोंके प्रसंगमे, विवाहके समय,प्राण जाते हों ऐसी आफतमें
और सव लुट जाता हो ऐसे समय इन पांचों जगह झूठ बोलनेमें पाप नहीं है,"! तथा अनेक प्रकारसे चोरीका निषेध करके फिर ऐसा कहा गया है कि "यदि ब्राह्मण हटसे, कपटसे.किसीका-धन लेले तथापि वह चोरी नहीं कहलाती। क्योंकि वह सव ब्राह्मणोंका ही है और उनकी कमजोरीके लिये ही वृष लोग [हलके लोग] उसका उपभोग कर रहे हैं। ब्राह्मण जो कुछ लेता है [ अपह
१ सत्यं ब्रुयात् प्रियं त्रुयात्, न त्रुयात् सत्यमप्रियम् , प्रियंच नावृतं ब्रुयात् , एष धर्मः सनातनः । मनुस्मृती अध्याय ४ श्लोक १३८
२" सर्व स्वं ब्राह्मणस्येदं यत् किंचित् जगति गतं, श्रेष्टयनाभिजनेनेदं सर्व वै ब्राह्मणोऽहति ॥ स्वयमेव ब्राह्मणो भुंक्त स्वं वस्ते स्व ददातिच, आनृशंस्याद ब्राह्मणस्य भुंजतहीतरे जनाः" ॥ देखिये मनुस्मृती अध्याय १ श्लोक १००-१०१