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जैन दर्शन
जान सकते हैं । तथा जो पदार्थ अतीतरूप हैं एवं भविष्यरूप हैं उन्होंके साथ ईश्वरके मनका संयोग न होनेसे वह उन्हें किसतरह जान सकेगा ? अतः ईश्वरका ज्ञान विषयमात्रको जानता है यह कथन भी सरासर विरोधवाला है, और यह विरोध स्पष्ट तौरसे समझा जा सकता है । इसी प्रकार योगियोंके ज्ञानके सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये ।
नैयायिक लोग यह मानते हैं कि पहले पदार्थ उत्पन्न होता है और फिर उसका रूप उत्पन्न होता है, यदि रूप पहले उत्पन्न हो तो वह श्राधारके विना कहाँ रह सके ? अतः उपरोक्त मन्तव्य स्वीकार किया जाता है । इस वातमें विरोध इस प्रकार आता है
जब पदार्थका नाश माना जाता है तब यह कहा जाता है कि, प्रदार्थका नाश हुये वाद उसके रूपका भी नाश हो जाता है । परन्तु यह कथन यथार्थ नहीं । वास्तविक रातिसे (आपके कथन करनेकी रीतसे) पदार्थका नाश होनेपर उसका रूप आधार रहित होकर फिर नाशको प्राप्त होना चाहिये, परन्तु श्राप कहते हैं वैसे नाश नहीं होना चाहिए, इस प्रकार उपरोक्त कथनमें विरोध मालूम होता है । इस तरह नैय्यायिक और वैशेपिकोंके दर्शनोंमें भी परस्पर विरोध रहा हुआ है
सांख्यमतमे जो परस्पर विरोध रहा हुआ है वह इस प्रकार हैवे कहते हैं कि प्रकृति नित्य, एक, अवयवरहित, क्रिया रहित एवं अव्यक्तरूप है, और ऐसी प्रकृति अनित्य महत् गैरह अनेक विकारोंको प्राप्त करती है, यह तो स्पष्ट ही विरोध है । एक ग्रह वात है कि चेतना पदार्थके ज्ञानसे रहित है क्योंकि पदाका ज्ञान बुद्धिका व्यापार है । यह भी अनुभव से सर्वथा विरुद्ध है । बुद्धि महदरूप है और जड़ है अतः वह कुछ चेतती ही नहीं यह भी विरूद्ध वाणी है ।
आकाश वगैरह पांच भूत शब्द तन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, वगैरह तन्मात्रा परमाणुओं से पैदा होते हैं, यह भी यथार्थ रीतिसे नहीं घटता । क्योंकि एकान्त नित्यपक्षमें कभी कार्यकारण भाव घटही नहीं सकता । अंत में यह कि जैसे पुरुष एकान्त नित्यरूप होनेसे