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जैन दर्शन
के लिये या उलका रक्षा करनेके लिये वस्त्रकी आवश्यकता नहीं पड़ती । परन्तु स्त्रियोको संयम रक्षणके लिचे वस्त्र रखने ही पड़ते हैं । शतः वस्त्र रखना भोजनके समान संयमशालाधन होनेते उसकी विद्यमानतामें चारित्रका प्रभाव किस तरह हो सकता है ? यदि यों कहा जाय कि उनके पास खरूप परिग्रह होनसे उनमें चारित्र नहीं होता, तो इस विषय में भी हमें एक प्रश्न करना पड़ता है कि क्या उन्हें वस्त्र में सूच्छा है कि जिलसे वह वस्त्र परिग्रह रूप है ? मात्र वे वनको धारण करती हैं इस लिये वह . परिग्रह रूप है? यावेमात्र वस्त्रको स्पर्श करती हैं इसलिये वह परिग्रह रूप हैं? किंवा उलमें जीवोंकी उत्पत्तिहोती है अतःवह परिग्रह रूप है? सदि यो माना जाय कि उन्हें वलले मूछों है अतः वह परित्रहरूप है तो इस विषयमें हम पूछते हैं कि शरीर छका कारण है या नहीं? यह तो आप कह ही नहीं सकते कि शरीर सूीका कारण नहीं है, क्योंकि यह विशेष दुर्लभ है और अन्तरंग है याने वनकी अपेक्षा यह अधिक नजीकका सम्बन्धी है। अव यदि शरीरको सूर्छाका हेतु माना जाय तो वह शिस तरह ? यदि शरीर मुर्छाका कारण हो तो उसे न छोड़नेका क्या कारण? क्या उसका परित्याग बड़ी मुस्किलले हो सकता है ऐसा है, या वह मुक्तिका निमित्त है ? यदि उसका त्याग बड़ी सुष्किलसे होता है ऐसा हो तो क्या यह नियम लपके लिये समान है या अहक मनुष्योंके लिये ही है? बहुतले मनुष्य अनिमें प्रवेश करके या अन्य किसी कारसे शरीरका भी परित्याग करते हुये मालून देते हैं, अतः उसका परित्याग करना सभीके लिये मुश्किल है यह कैसे कहा जाय ? यदि उसके त्यागकी कठिनता कितने एक मनुष्योको ही मालूम देती हो तो शरीरके ही समान वस्त्रोंका भी . परित्याग करना कितने एक मनुयोंके लिये मुस्किल है यह भी माना जा सकता है। यदि यों कहा जाय कि शरीर मुक्तिका निमित्त है अतः इसका त्याग नहीं हो सकता, तो शरीरके ही समान वस्त्र भी वहुतली कर्मशियाओमे कारणरूप होनसे उस प्रकारके कितने एक शक्ति रहित मनुष्योंके लिये उपयोगी है ऐसा क्यों न