________________
१४६
जैन दर्शन
नहीं कर सकता, और ऐसा होनेसे वह प्रवृत्ति भी किस तरह कर सके ? कदाचित् मानलो कि जो ज्ञानको धारा.क्षणिक है तो क्या घह इस तरहका विचार करके अपने कल्याणकी प्रवृत्ति नहीं कर सके ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है
वह ज्ञानकी धारा कि जो मात्र एक क्षण ही रहती है सर्वथा विकल्प विहीन होनेसे सब कुछ किस तरह कर सकती है ?. एक ही क्षणमें पैदा होना, विचार करना और मोलके लिये प्रवृत्ति करना, यह सव कुछ बनना सर्वथा असम्भवित है । अव कदाचित् यो मान लिया जाय कि ज्ञानका सन्तान सब कुछ कर सकता है और मुक्तिको भी प्राप्त कर सकता है तो फिर इसमें क्या 'दूपण प्राता है ? इसका समाधान यह है कि वौद्धलोग क्षणिक ज्ञान धारा और सन्तान इन दोनोंको एक ही मानते हैं, अतः जो दूषण शानधारा पर आक्रमण करता है वही दूषण यहाँ भी समझ लेना चाहिये। तथा हम (जैन) यह कहते हैं कि जब वौद्ध लोग वस्तु मानका स्वभाव क्षण विनाशी मानते हैं तो फिर उन्हें मोक्षके लिये प्रयास करना ही नहीं चाहिये। क्योंकि रागादिके नाशको वे मोक्ष कहते हैं और वह नाश तो अपने आप ही होनेवाला है, अतः क्षाणक वादसे मोक्षके लिये प्रयास करनेकी कोई आवश्य. कत्ता मालूम नहीं देती। इससे क्रियाकाण्डकी योजना या पाचरणा निकम्मी है। यदि चर्चा करनेके लिये यह मान लिया जाय कि मोक्षके वास्ते नियोजित किये हुये क्रियाकाण्ड निकम्मे नहीं हैं, तो हम इस विषयमें निम्न लिखित प्रश्न पूछते हैं। । क्या वे क्रियाकाण्ड रागादि क्षणका नाश करते हैं ? या अवसे पीछे होनेवाले रागादिको होने नहीं देते ? वा रागादिकी शक्तिका क्षय करते हैं ? वा सन्तानका उच्छेद करते हैं ? किंवा सन्तानको. पैदा ही नहीं होने देते ? अथवा आश्रवरहित चित्त सन्ततिको पैदा करते हैं ? यदि वौद्धोंकी तरफले यह कहा जाय कि क्रियाकाण्ड रागादि क्षणका नाश करते हैं तो यह कथन अयुक्त है । क्योंकि बौद्धोंके सिद्धान्तमें नाश होना वस्तुका ही स्वभाव होनेसे उस • नाशका कोई हेतु कल्पित करना यह अनुचित है। यदि यह कहा