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________________ निर्जरा और मोक्ष. १४५ नहीं हो सकता। जो मुर्ख और अज्ञानी हैं उन्हींके लिये प्रचलित हो सकता है । जो मनुष्य अज्ञानी है वह जैसे सूर्ख रोगी कुपथ्य करता है वैसे आत्माके स्नेहके कारण संसारमें जानता हुआ दु:खके मिश्रणवाले सुख साधनों में प्रवृत्ति करता है, परन्तु जो ज्ञानी पुरुष है एवं हिताहितका जाननेवाला है वह जैसे चतुर रोगी निरंतर पथ्यका सेवन करता है और कुपथ्यका परित्याग करता है वैसे ही अतात्विक सुखके साधन स्त्री पुत्र वगैरहका परित्याग करके आत्माके सेहके कारण सर्वथा सुखमय मुक्तिके मार्ग प्रवत्ति करता है । इस लिये आत्माके लेहके कारण आपने (बौद्धोने) जो दूषण बतलाया है वह ठीक नहीं है। तथा आपने जो यह कहा है कि "मुक्तिको प्राप्त करनेकी इच्छावाले मनुष्यको अनात्मताकी ही भावना करनी चाहिये" यह वात भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार सर्वथा नित्यताकी भावना मुक्तिका कारण नहीं हो सकती वैसे ही सर्वथा अनित्यताकी भावना भी सर्वथा मुक्तिका कारण नहीं हो सकती। ऐसी एकान्त नित्यता या एक.न्त अनित्यताकी भावना व्यर्थ है, तथा इस प्रकारकी भावना भी एक स्थिर अनुसंधान करनेवाले के सिवाय हो नहीं सकती, अतः यदि आपको मोक्षके सम्बन्धमे बात-चीत करनी हो तो आत्माको एक स्थिर अवश्य मानना चाहिये । तथा जो वन्धा हुआ होता है वही छूट सकता है, इस लिये जो मोक्षको प्राप्त करनेवाला हो उसे स्थिर मानना ही चाहिये। आपके माने हुये क्षणिक वादमें कोई ज्ञान सन्तान बन्धा हुआ है, कोई ज्ञान सन्तान मुक्तिके कारणोंको जानता है और कोई तीसरा ही ज्ञान सन्तान मुक्तिको प्राप्त करता है । इस प्रकारका अव्यवस्थित नियम है । करे कोई और जाने कोई, एवं प्राप्त करनेवाला कोई और ही, इस तरह दोके वीच तीसरा ही खा जाय इस प्रकारका नियम किसीको भी इष्ट नहीं हो सकता । वुद्धिवान् मनुष्य मात्र यह विचार कर प्रवृत्ति करता है कि मेरा कुछ श्रेय हो, परन्तु आपके क्षणिक वादमें समस्त ही क्षणिक होनेसे एवं ज्ञानकी धाराये परस्पर किसी तरहका सम्वन्ध न रखनेवाली होनेके कारण एक भी ज्ञान सन्तान इस तरहका विचार १०
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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