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________________ १४४ जैन दर्शन मिश्रण है इसका क्या होगा ? अतः तपले काँका क्षय होकर मोक्ष प्राप्त हो यह यरावर संघटित नहीं होता । यही बात दूसरे ग्रंथों लोकों द्वारा बतलाई है। ताप्तय यह कि जैन मतानुयायी मानते हैं वैसा मोक्ष युक्तियुक्त मालूम नहीं देता इसले निरात्मभाव- . नाकी प्रवलताके कारण चित्तकी जो क्लेश रहित अवस्था होती है उसे ही मोक्ष मानना उचित है। इस प्रकार मोक्षके सम्बन्धमें यह बौद्धोंका अभिप्राय हैं । अव जैनमतानुयायी इस अंभिप्रायका उत्तर इस तरह देते हैं। आप लोग आत्माको स्थिर नहीं मानते और जो मात्र ज्ञानकी " धाराये ही मानते हैं उनमें भी बहुतले दूपण इस प्रकार आते हैंज्ञानके प्रवाहतो क्षण क्षणमे पलटते रहते हैं, इसमें जो प्रवाह-निया करनेका निमित्त बनता है वह क्षणिक होनेके कारण क्रियाका फल भोगनेके लिये रह नहीं सकता और जो प्रवाह दूसरे क्षणमें झियाका फल भोगता है वह उस क्रिया फलका कर्त्ता नहीं होता। अर्थात् आपके माने हुये क्षणिकवादसे का कोई और भोक्ता कोई यह बड़ेमें बड़ा दूषण आता है। क्योंकि जो कर्त्ता होता है वही भोक्ता होता है यह नियम सभीको संमत है । तथा आपके . • इस क्षणिकवादमें स्मरण शक्ति भी किस तरह घट सकती है? क्योंकि जिसने देखा है या जिसने सुना है वह ज्ञान प्रवाह क्षणिक होनेले टिक नहीं सकता और उसकी जगह जो दूसरा ज्ञान : प्रवाह आता है उसने पूर्वका देखा या सुना नहीं है इसले एकका देखा हुआ दूसरा किस तरह याद कर सके? संसारमें इस प्रकारका नियम है कि जिसने किया हो वही याद रख सकता है और यह नियम सबने मंजूर किया हुआ है।अतः इस प्रकारके दोष बहुत हैं। क्षाणिक वादको न मानकर स्थिर वाद मानना यह युक्ति युक्त है। जिस प्रकार मालामें रहे हुये समस्त मनके टिक सकते हैं वैसे ही ये ज्ञानकी धारायें भी सूतके धागेके समान एक श्रात्मामें पिरोई हुई हो. तो ही व्यवस्थित रह सकती हैं और ऐसा माननेसे ही '. उपरोक्त समस्त दूषण दूर होते हैं । अतः आत्माको क्षणिक न मानकर स्थिर वृत्तिवाला. मानना चाहिये और ऐसा मानने वाद
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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