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निर्जरा और मोक्ष वह उन सुखोंमें तृप्ति पाता है और सुखकी तृष्णा उसे दोपोंको नहीं देखने देती। फिर वह श्रात्मदी ममताद्वारा सुखके साधनोको ग्रहण करता है इससे उसे आत्माका अभिनिषेध-अहंता का कदाग्रह उत्पन्न होता है याने जवतक आत्मदर्शन हो तबतक संसारही रहता है। प्रात्माको विद्यमानता भालूम हुये वादही मैं और दुसरा (अहं और त्वं) ऐसा भाव होता है इस तरहके मानके कारण राग और द्वेप उत्पन्न होते हैं और ये दोनो ही समस्त दोपोंकी जड़े हैं" अतः मुक्तिको प्राप्त करनेवाले मनुष्यका स्त्रीपुत्र वगैरह परिवारको अनात्मिक (हमारा नहीं) मानना चाहिये और यह समस्त वाह्य संयोग अनित्य है, प्रशचि है, तथा दुःखरूप है ऐसा विचार करना चाहिये । ऐसा चिन्तन करनेसे प्रात्मामें स्नेह उत्पन्न न होगा और उस प्रकारके विशेप अभ्याससे ही वैराग्य पैदा होगा, इससे चिस भाव रहित होगा और इसोका नाम मुक्ति है । अव कदाचित् कोई यों कहे कि ऊपर लिखे मुजय विचार न किये जायें और मात्र शरीरको दुःख देनेरुप तप तपा जाय तो भी सकल कर्मोका नाश होनेसे मोक्ष होना संभावित है, अतः तपके द्वारा ही क्यों न मोक्ष प्राप्त किया जाय? इसके उत्तर में चौद्ध कहते हैं कि शरीरको दुःख देना यह कोई तप नहीं है। ये तो जैसे नारकी लोक अपने पूर्वके पापके कारण अनेक तरहका दुःख देनेवाला भी अपने पूर्वकाँका फल ही भोगते हैं परन्तु वह कुछ तप नहीं करते, अतः ऐसे तपके द्वारा मोक्ष कैसे मिल सकता है ? तथा कर्म तो अनेक प्रकारके हैं, क्योंकि उनके द्वारा अनेक प्रकारके भिन्न २ फल मिल रहे हैं अतः अनेक प्रकारके कर्मोंका नाश एक प्रकारके तपसे कैसे हो सकता है ? कदाचित् यों कहा जाय कि तपमें अनेक प्रकारकी शक्तियोंका संमिश्रण होनेसे तपके द्वारा कर्मोका नाश क्यों न हो सकेगा? इस वातके उत्तरमें चौद्ध मतानुयायी कहते हैं कि यदि इस प्रकार काँका नाश होकर मोक्ष हो सकता हो तो थोड़ेसे क्लेश से भी समस्त काँका नाश होना चाहिये । क्योकि यदि ऐसा नहीं माना जाय तो यहांपर भी तपमें अनेक शक्तियोंका