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जैन दर्शन
वाली न माना जाय तो उसकी नित्यता किस तरह घट सकती है? जो वस्तु सर्वथा नित्य होती है उसका पूर्वरूप कदापि नहीं बदलता और उसमें नवीन भविष्यका रूप भी नहीं आ सकता। परिवर्तनकी बात उसीमें घट सकती है कि जो वस्तु परिणामी नित्य हो । यदि पूर्वोक्त दूपणको दूर करनेके लिये प्रकृतिको परिणामी नित्य मान लिया जाय तो भात्माको भी वैसा ही मानना चाहिये। क्योंकि जब वह प्रकृतिके साथ मिला हुआ होता है तव उसे सुखका भोगनेवाला माना गया है और मोक्षमें उसे वैसा नहीं माना गया । तथा पहले उसे अमुक्त दशामें और फिर मुक्तदशामें आया हुआ माना जाता है। इस प्रकार आत्माके परिणाम परिवर्तन- ' शील होनेसे उसे भी परिणामी नित्य मानना चाहिये, वैसे ही आत्माको सुखी एवं दुखी वगैरह भी मानना चाहिये । यदि उसे जरा भी परिवर्तनशील न माना जाय तो वह अमुकसे मुक्त किस तरह होगा। इस प्रकार सर्वथा मोलके अभावकी नौवत उपस्थित होगी। तात्पर्य यह है कि साँख्योंका माना हुमा मोक्ष यथार्थ रीतिसे घट नहीं सकता अतः मोक्षको अनन्त सुख और अनन्त शानवाला मानना युक्तियुक्त है।
वौद्ध मतवाले मोक्षके सम्बन्धमें जो अभिप्राय रखते हैं वह इस प्रकार है-वे कहते हैं कि मानकी क्षणिक धाराओके सिवाय अन्य कोई जुदा और स्थिर रहनेवाला आत्मा नहीं है, इससे शानमें और सुखमें मोक्षकी बातें करना सर्वथा व्यर्थ है। जो मनुष्य-आत्मदर्शी (आत्माको माननेवाले) हैं वे मुक्तिको प्राप्त ही नहीं कर सकते। इसका कारण यह है-जो मनुष्य आत्माको स्थिर
और नित्य मानता है उसे आत्मा पर स्नेह होता है, उस स्नेहके लिये वह आत्मदर्शी मनुष्य श्रात्मसुखोंमें एवं उसके साधनोंमें दोषोंकी दृष्टि न करके मात्र गुणोंको ही देखता है और ममतापूर्वक सुखके साधनोंको ग्रहण किये जाता है। इस तरह जवतक
आत्मदर्शन है तबतक संसारही है । इसके सम्बन्धमें कहा है कि "जो मनुष्य आत्माको देखता है उसमें. अहं' इस प्रकारका नित्य रहनेवाला स्नेह उत्पन्न होता है उस स्नेहके कारण