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निर्जरा और मोक्ष
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विषयमें यह एक और भी प्रश्न उठता है कि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध करता हुआ आत्मा अपने पूर्व स्वभावको छोड़ता है या नहीं ? यदि वह अपने पूर्व स्वभावको छोड़ता हो तो वह अनित्य हो जायगा और ऐसा बनना साँख्यमतमें बड़ा दूषणरूप है । यदि वह अपने पूर्व स्वभावको छोड़ता ही न हो तो प्रकृतिके साथ मिन ही किस तरह सकता है ? तरूण होनेवाले मनुष्यको अपनी बाल्य अवस्था छोड़नी ही चाहिये, वैले ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध धारण करनेवाले आत्माको अपना पूर्व स्वभाव छोड़ना हीचाहिये। इस प्रकार किसी भी तरह साँख्यमतमें श्रात्माके साथ प्रकृतिका संयोग ही संघटित नहीं हो सकता तो फिर उसके वियोगकी तो बात ही क्या ? साँख्यमतवालोंने पहले यह वात कही थी कि श्रात्माको जब विवेक होता है फिर वह कर्मफलको नहीं भोगता, इत्यादि यह बात भी उचित नहीं है। हम (जैन) इस विषयमें यह पूछना चाहते हैं कि विवेक याने क्या ? यदि यह कहा जाय कि अपने स्वरूपमें रहे हुये प्रकृति और पुरुषका जो भिन्न २ शान है उसे विवेक कहते हैं, तो वह विवेक किसको होता है ? आत्माको होता है या प्रकृतिको ? हम कहते हैं कि उस विवेकका होना इन दोनोंमेंसे एकको भी होना संघटित नहीं होता। क्योंकि साँख्यमतवालोंके हिसाबसे वे दोनों ही अज्ञान हैं । तथा साँख्यमतावलम्बियोंने जो यह बतलाया था कि 'प्रकृति स्वयं कुष्ट रोगवाली स्त्रीके समान दूर भाग जाती है' इत्यादि, यह बात भी ठीक नहीं है । क्योंकि प्रकृति तो स्वयं जड़ हैं, इससे उसमें दूर भाग जानेकी अकल या बुद्धि किस तरह आवे? तथा वह प्रकृति नित्यरूप होनेके कारण मोक्ष दशाको प्राप्त हुये श्रात्माशोंको भी अपने साथ क्यों न मिला सके ? जैसे किसी मनुष्यने वायुको प्रतिकुलतया समझाहो तथापि वायु उस मनुष्यका पीछा नहीं छोड़ता वैसे ही प्रकृतिको भी प्रा. त्माने निर्माल्य समझा होतथा प्रकृति उसका पीछा किस तरह छोड़ सकती है ? क्योंकि प्रकृति नित्य होनेके कारण सदैव रहनेवाली है। इस प्रकार किसी भी आत्माका प्रकृतिसे वियोग होना संघटित नहीं हो सकता तो मोक्ष कहाँसे हो? यदि प्रकृतिको सदैव रहने