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निर्जरा और मोक्ष
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जाय कि वे क्रियाकाण्ड भविष्यमें होनेवाले रागादिका अभाव करते हैं तो यह भी प्रयुक्त ही है। ज्योकि अभाव किसीले हो नहीं सकता, वह कुछ मट्टी जैसा पदार्थ नहीं है कि जो बनाया जा सके वा उत्पन्न किया जाय । यदि वे यों कहे कि वे अनुष्ठान रागादिकी शक्तिका नाश करते हैं तो यह भी रागादि क्षणके नाशके अथवा अभावके समान ही प्रयुक्त और बौद्ध सिद्धान्तसे विरुद्ध है। इसी प्रकार चौथे एवं पांचवे कथनमें भी यही दूषण उपस्थित होता है। तथा श्राप वास्तविक सन्तान नहीं मानते इससे उसका उच्छेद करनेलेयापैदान होने देनेसे भी क्या लाभ? क्योंकि वह सन्तान तो मृतक समान ही है और कहीं भी मेरे हुयेको मारना देखने में नहीं आता, अतः सन्तानके उच्छेदरुप मोक्ष भी संघटित नहीं हो सकता। कदाचित् श्राप अन्तमें यों कहें कि वे अनुष्ठान आश्रव राहत वित्त सन्ततिको पैदा करते हैं तो आपकी यह दलील कुछ यथार्थ मानी जाय । परन्तु इस विषयमें भी हमें कुछ थोड़ाला पूछना तो जरूर ही है। हम यह पूछना चाहते हैं कि वह चित्त सन्तति दूसरी चित्तसन्ततिके साथ सम्वन्ध रखती है या नहीं ? यदि वह दूसरी चित्त सन्ततिके साथ सम्बन्ध रखनेवाली हो तव तो ठीक ही है और ऐसा होनेपर ही मोक्ष घट सकता है। परन्तु यदि वह चित्त सन्तति दूसरी सन्ततिके साथ सम्बन्ध न रखती हो तो मोक्षका नियम घट नहीं सकता। क्योंकि चित्त सन्ततिको क्षणिक माननेसे प्रथम कथन किये सुजय' करे कोई और तथा भोगे कोई और' इस तरहका बड़ा भारी दूपण श्राता है । तथा श्रापने जो यह कहा था कि कायक्लेश 'तपरप नहीं हो सकता ' यह भी सत्य नहीं है । क्योंकि कायक्लेशमें जो अहिंसाकी प्रधानता होती है वह कर्मके परिणामरूप होनेपर भी तपरुप ही है जो कायक्लेश व्रतसे अविरुद्ध है वह निर्जराका हेतु होनेसे.तपरुपमाना जाता है।
इस प्रकार तपकी व्याख्या करनेसे नारकियोंके कायलेशका तपमें समावेश नहीं हो सकता । क्योंकि उसमें हिंसादिके प्रावेशकी प्रधानता होती है, अतः नारकियोंके कायक्लेशके साथ सत्पुरुषों के देह दमनकी समानता करना सर्वथा अनुचित और अयुक्त है।