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जैन दर्शन . .
उन्होंकी मानी हुई वेदकी श्रुतियां भी मोक्ष दशाके सुखका वर्णन इस प्रकार कर रही है-" ब्रह्मका रूप आनन्द है, और वह मोक्ष दशामें प्रगट होता है। उस समयका ब्रह्मका रूप देखकर समस्त बन्धन टूट जाते हैं और उसी वक्त-मोक्षदशामे आत्मा निजमें नित्य आनन्दका लाभ प्राप्त करता है।" तथापि दूसरी श्रुति इस प्रकार है-जहांपर मात्र बुद्धि ही पहुँच सकती है, इन्द्रियाँ न पहुँच सके ऐसा कदापि नाश न पानेवाला सुख जहांपर रहता है उसका नाम मोक्ष है और उस मोक्षको अपूर्ण मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकते ।" अतः मोक्ष सुखमय है इस वातमें अव कुछ विवाद या शंका नहीं रहती, इस लिये वैशेषिकोंको भी मोक्षको सुखमय मानना चाहिये और ऐसा करके वेदकी श्रुतिका मान रक्षण करना चाहिये । अब सांख्य मतवालोंका मोक्षके सम्बन्ध जो अभिप्राय है वह इस प्रकार है
वे कहते हैं कि यह पुरुष [आत्मा] शुद्धचैतन्यरूप है और एक सलाईको भी वक करनेके लिये अशक्त है अत: वह अकर्ता है, तथा साक्षात् भोगनेवाला भी नहीं। वह तो जड़ और क्रिया करनेवाली प्रवृत्तिका समाश्रुत है और इसीसे उसपर अज्ञानका पटल छाया हुआ है। ऐसा होनेसे ही जो सुख वगैरह फल प्रकृति में रहनेवाला है उसका प्रतिविम्ब आत्मामें पड़ता हैं उसे ही वह अपना मान लेता है और ऐसे मोहके कारण ही प्रकृतिको सुखस्वभाववाली मानता हुआ प्रात्मा संसार में निवास करता है । जव प्रात्माको इस बातका विवेक होता है कि-"यह प्रकृति दुःखका हेतु है और इसके साथ सम्वन्ध रखने में कुछ लाभ नहीं।" उस वक्त वह [श्रात्मा] प्रकृतिके किये हुये कर्म फलको नहीं भोगता। प्रकृति भी यही समझती है कि । "इस आत्माने मेरी त्रुटि जानली है और अब यह मेरा किया हुआ कर्मफल नहीं भोगता" तव वह कुष्ट रोगवाली स्त्रीके समान उससे दूर दौड़ती है।
जब प्रकृतिकी शक्ति ठंडी पड़ जाती है तव आत्मा अपने मून स्वरूपमें आ जाता है और इसीका नाम मोक्ष है। अर्थात् मोक्ष