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निर्जरा और मोक्ष
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होता है, छह ऊर्मियोंसे पर होता है ऐसा पण्डितलोक कहते हैं । काम, क्रोध, मद, गर्व, लोभ और दम्भ ये छह उर्मियाँ हैं । तथा वे ( मिमांसा मतवाले ) कहते हैं कि - " जयत्तक आत्मा शरीरधारी होता है तबतक उसे सुख और दुःख होता है शरीर रहित श्रात्माको सुखदुःखका स्पर्श तक भी नहीं होता । " मिमांसामतवालोका पूर्वोक्त मोक्षविषयक अभिप्राय वैशेषिक मतवालों जैसा ही असत्य मालूम होता है । हम ( जैन ) वैशेषिकमतवालोंसे पूछते हैं कि आप मोक्ष दशामें सुख मात्रका सर्वथा अभाव ही मानते हैं. या जो सुख शुभकर्मके परिणाम रूप हैं उन्हींके फलका अभाव मानते हैं ? यदि शुभकर्मके परिणाम रूप सुखका ही अभाव मानतो हो तो इस वातमें हमारा आपसे कुछ भी कथन नहीं है । क्यों कि हम भी यह मानते हैं कि मोक्ष दशामें किसी भी कमस पदा होनेवाला सुख नहीं रहता । यदि आप मोक्षदशामें सुख मात्रका प्रभाव मानते हैं तो यह बात हमें मंजूर नहीं हो सकती । क्योंकि आपका यह पक्ष असत्य है । आत्मा सुखस्वरूप है अतः सुख यह श्रात्मा का स्वभाव है और ऐसा होनेसे ही आत्माके स्वमावरूप इस सुखका कदापि नाश नहीं हो सकता । जैसे हम वैषयिक सुखोको अत्यन्त चाहते हैं वैसे ही सब अपने २ आत्माको भी अत्यन्त चाहते हैं अतएव यह साबित हो सकता है कि श्रात्मा तुखमय है । यदि वह सुखमय न होता तो उसे कोई भी न चाहता । तथा विचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले मुमुक्षु मात्र सुखके लिये ही प्रवृत्ति कर रहे हैं और वह सुख मोक्ष दशामें ही मिल सकता है । मोक्षदशामें जो सुख रहा हुआ हैं वह अवधि रहित है और अखंड तथा अधिक प्र धिक है, उससे अधिक सुख अन्यत्र कहीं संभावित नही हो सकता । जिस जिस गुणमें तरतमता मालूम देती है उस गुणकी तरतमता किसी भी जगह जरूर अटकनी चाहिये । जैसे परिणामकी तरत मता आकाश में अटकी है वैसे ही सुखकी भी तरतमता 'मोक्ष दशामें अटकी है, अतएव मोक्षदशाका सुख अवधि रहित है ऐसा कहा गया है। तथा हम वैशेषियोंको विदित करते हैं कि
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