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निर्जरा और मोक्ष
दशाम रहा हुआ प्रात्मा अनन्त चैतन्यमय है किन्तु आनन्दमय नहीं । क्योंकि प्रानन्द यह प्रकृतिका स्वभाव है और मोक्षदशामें उसका सर्वथा नाश ही हो जाता है। सांख्यमतवाले मोसके सम्बन्धमें इस प्रकार अभिप्राय रखते हैं। इस वातका उत्तर जैन मतावलम्बी इस प्रकार देते हैं- .
सांख्यमतवाले यह मानते हैं कि ज्ञान यह बुद्धिका धर्म है और बुद्धि जड़ स्वरुप प्रकृतिमेसे प्रगट होती है । अर्थात् ज्ञान और आत्माका किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं-आत्मा मात्र अज्ञान है। जैसे यह आत्मा अशान है वैसे ही उसके समान मुक्त आत्मा भी अशान है । जो अशानके कारण प्रकृति में रहा हुआ सुख वगैरह आत्मा निजका मानता है उसी अशानके कारण मुक्त हुआ आत्मा भी प्रकृति में रहे हुये सुख वगैरह फलको निजका क्यों नहीं मानता? क्योंकि वह मुक्त प्रात्मा भी शान रहित होनेसे अज्ञान.रुप अन्धकारले आच्छादित है। इस प्रकार शान और आत्माका सम्बन्ध न मानकर उसका (ज्ञानका) प्रकृति जैसी जड़ वस्तुके साथ सम्बन्ध माननेसे उपरोक्त दूपण आता है । कदाचित् सांख्य लोक अज्ञानका अर्थ रागादि करें तथापि नहीं मिट सकता । क्योकि वे रागादिक प्रकृतिके धर्म हैं अतःवे आत्माले सर्वथा जुदें हैं और ऐसा होनेसे ही वे श्रात्माको आच्छादित नहीं कर सकते। यदि अत्यन्त जुदे होनेपर भी वे रागादि आत्माको आच्छादित कर सकते हो तो फिर मुक्त प्रात्मा भी उनसे आच्छादित होना चाहिये ।वह भी उनसे अत्यन्त ही जुदा है तथा संसारी भात्माको की न मानकर मात्र भोगनेवालाही मानना इस बातमें भी बहुतसे दूषण पाते हैं । लोकोमें भी 'जो करे सो भरे' यह बात सुप्रसिद्ध है,इससे विपरीत करनेवाला और एवं भोगनेवाला कोई दूसरा,यह कैसे हो सकता है ? तथा हम (जैन) सांख्योंसे यह पूछते हैं कि प्रकृति और पुरुषका संयोग किसने कराया-क्या आत्माने किया? या प्रकृतिने किया? यदि आप यह मानते हैं कि प्रकृति और प्रात्माका संयोग प्रकृतिने ही किया हुआ है, तो आपकी यह यात यथार्थ नहीं है। क्योंकि प्रकृति तो सर्वत्र ही रही हुई है इससे यदि