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________________ पाप और आश्रव १२१ होता है । कोई मनुष्य है, कोई पशु है, इत्यादि अनेक प्रकारको विचित्रता जीवोंमे कारण विना सम्भावित नहीं हो सकती । इस विचित्रताका जो कारण है बस वही पुण्य और पाप है । यदि यों कहा जाय कि-"बाप जैसा बेटा और बड़ वैसा टेटा” इस प्रकारके लौकिक न्यायसे इस विचित्रताका कारण हो सकते हैं, परन्तु उसका कारण परोक्ष पुण्य पाप नहीं हो सकता। इसका उत्तर इस प्रकार है। यदि इस विचित्रताके कारण मा-बाप ही हो सकते हों तो अन्धे मा-बापोंकी देखनेवाली सन्तान, देखनेवाले माबापोंकी अन्धी सन्तान, कद्रूप मा-यापोंकी सुडौल सन्तान, और सुडौल मा-बापोकी कद्रूप सन्तान होना, इस प्रकारकी विचित्रता होनेका क्या कारण ? अथवा एक ही मा चापके दो पुत्रों में एक चतुर और दूसरा सूर्ख, एक सुन्दर और दूसरा कुरुप, एक अपंग और दूसरा अंगोपांग सहित, एक काना और दूसरा दो आँखोंवाला इत्यादि विचित्रता होनेका क्या कारण ? इस विषयमें गहरा विचार करनेसे मालूम हो सकता है कि इस विचित्रताके कारण मा-बाप नहीं परन्तु जीवोंके अपने स्वयं किये हुये कर्म याने पुण्य और पापही हो सकते हैं। शरीरके सौन्दर्य आदिका कारण पुण्य और शरीरके कद्पपन वगैरहका कारण पाप है । अर्थात् इल युक्तिसे भी पुण्य और पापका अस्तित्व सावित होता है। अथवा अन्तमें हम यह कहते हैं कि इन दो तत्वों याने पुण्य और पापकी विद्यमानता सर्वज्ञ पुरुषने कथन की है अतः प्रत्येक मुमुक्षु मनुप्यको सर्वशके कथनानुसार मानना चाहिये। इस विषय में यहाँपर लिखनेसे भी विशेष चर्चा हो सकती है। परन्तु विस्तारके भयसे हम इसे बढ़ाना नहीं चाहते। जिस सुज्ञ जिशासुको इस विषयमें विशेष जाननेकी जिज्ञासा हो उसे विशेषावश्यककी टीका देख लेना चाहिये। - -
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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