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जैन दर्शन
संसारमें मिलता हुआ ही कुछ प्रत्यक्ष फल हो तो वे सब पाप रहित होनेते मृत्यु पाते ही सीधे मुक्ति तरफ जाने चाहिये और वहाँले कदापि पीछे पुनर्जन्म न मिलना चाहिये। यदि ऐसा वन सके तो संसारका रूपयेमें पन्द्रह आने भाग इस प्रकारका होनेसे शीव ही मुक्ति प्राप्त कर सके और फिर संसारमें बहुत ही कम याने जो सुखी हैं वे ही हमारे नजरमें आ सकें। इससे संसारमें अनन्त जीव हैं, यह हकीकत असत्य होनी चाहिये और हमें एक भी कोई दुःखी मनुष्य न दीलना चाहिये । परन्तु ऐला तो देसनेम नहीं त्राता, याने संसारमें मालूम होता है कि मुखी मनुष्यकी अपेक्षा दुखी मनुष्य अनेक गुने अधिक हैं और सुखी तो बहुत ही कम हैं। इस प्रकारकी संसारकी दशापरले तो प्रत्युत यह निश्चित हो सकता है कि जो ये दुःखी मनुष्य मालुन होते हैं वे ही पूर्वजन्ममें की हुई हिंसामय प्रवृत्तियोंके फलरुप हैं। और वे ही लोग पापकी विद्यमानता बतलानेके लिये काफी हैं। जो थोड़े बने मनुष्य सुखी मालूम देते हैं वे पूर्व जन्ममें की हुई दान वगैरह शुभ प्रवृत्तिले फलरूप हैं और उन्होंकी कम संख्या ही पुण्यकी विद्यमानताके लिये पर्याप्त है। अव कदाचित् यह कहा जाय कि नानादिक शृभ क्रियाका फल दुःख और हिलादिक अशुस क्रियाका फल सुख इस तरहका विपरीत नियम क्यों न हो सके ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-यदि ऐसा विपरीत नियम सत्य होता तो संसारसे दुखी प्राणी बहुत कम नजर आने चाहिये और सर्वत्र सुखी ही सुखी मनुष्य मालूम होने चाहिये। क्योंकि दानादिक शुभ किया करनेवाले बहुत कम हैं और हिंसादिक अशुभ क्रिया करनेवाले उनले अनेक गुने अधिक हैं।
ऐसा होनेले पूर्वोत विपरीत प्रकारका नियम सत्य नहीं हो सकता । त्या पुण्य और पांपकी लिद्धिके लिये यह एक दूसरी भी युक्ति मौजूद है-सब जीव एक सरीखे हैं तथापि एकका शरीर सुन्दर, सुडौल, दीखने में अच्छा पाँचों इन्द्रियोंसे परिपूर्ण और निरोगी होता है एवं दूसरेका शरीर कद्रूपं, वेडौल, किसीको देखनेमें पसन्द न पड़े वैसा किसी अंग प्रत्यंगकी त्रुटिवाला और रोगी